chandrapratapsingh

Nov 29, 20223 min

2024 की रणनीति को दिशा देंगे उपचुनाव के परिणाम

नई दिल्ली, 29 नवंबर 2022 : उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार जैसे राज्यों में 2014 के बाद मोदी लहर ने जातियों के डोरे काफी हद तक कमजोर किए हैं, लेकिन चुनावी ऊंट की करवट इनके नियंत्रण से पूरी तरह बाहर आज भी नहीं है। जातियों के ऐसे ही समीकरणों में अभी यूपी की मैनपुरी लोकसभा सहित रामपुर और खतौली विधानसभा सीट फंसी है। सभी दल जोर लगा रहे हैं और बहुत संभव है कि इस उपचुनाव के परिणाम लोकसभा चुनाव 2024 की रणनीति को दिशा दें और दलों को अपने दांव से लेकर तमाम चेहरे तक बदलने पड़ें।

सपाई गढ़ कही जाने वाली जिस मैनपुरी में कभी सैफई परिवार को चुनाव प्रचार की जरूरत नहीं महसूस हुआ करती थी, वहां करहल विधानसभा सीट पर अखिलेश यादव को जिताने के लिए पूरे परिवार को 2022 के विधानसभा चुनाव में ताकत झोंकनी पड़ी और आज मैनपुरी लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में डिंपल यादव के लिए अखिलेश यादव सहित पूरा परिवार पसीना बहा रहा है। यहां पार्टी और परिवार की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है और दूसरी है जातीय समीकरण की पेचीदगी। यादव वोट बहुलता में है, लेकिन निर्णायक नहीं, क्योंकि पिछड़ा वर्ग से ही आने वाले शाक्यों की आबादी दूसरे स्थान पर है।

पिछड़ा वर्ग को काफी हद तक अपने पाले में खींच चुकी भाजपा यदि यहां शाक्य वोट के साथ अन्य पिछड़ी और दलित जातियों का वोट हासिल कर लेती है तो वह शिवपाल कार्ड फेल हो जाने के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में भी इसी रणनीति के तहत रघुराज शाक्य की तरह इस वर्ग से प्रत्याशी उतार सकती है। वहीं, अखिलेश को सोचना पड़ जाएगा कि वह अपने गढ़ में भी मुलायम सिंह यादव की तरह सभी जातियों के नेताजी नहीं हैं।

जातियों के ऐसे ही जंजाल ने मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट पर दलों को फंसा दिया है। यहां जाटों की राजनीति करने वाले राष्ट्रीय लोकदल का सपा से गठबंधन है। गुर्जर प्रत्याशी मदन भैया को उतारकर जाट-मुस्लिम-गुर्जर समीकरण सजाया। चूंकि पश्चिम के जाटों ने कृषि कानून विरोधी आंदोलन के बावजूद 2022 में भाजपा से मुंह नहीं मोड़ा, इसलिए दलितों में भी खास तौर पर जाटवों को आकर्षित करने के लिए भीम आर्मी के चंद्रशेखर से रालोद मुखिया जयंत चौधरी ने हाथ मिलाया है।

बसपा प्रमुख मायावती के बाद चंद्रशेखर ही दलित नेता के रूप में खुद को उभारने में प्रयासरत दिखते हैं। परिणाम बताएंगे कि 1993 में मिले मुलायम-कांशीराम के नारे के साथ सपा-बसपा की कास्ट-कैमिस्ट्री ने जिस तरह से राम मंदिर आंदोलन के ज्वार तक को बेअसर कर दिया था, क्या अब फिर दलित वर्ग जाट या यादव समुदाय के साथ जिताऊ समीकरण बनाने को तैयार है?

हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में यादव-दलित का सियासी रिश्ता बेमेल साबित हो चुका है। अब यदि यह गठबंधन सफल हुआ तो भाजपा को लोकसभा चुनाव में जाटबेल्ट के लिए रणनीति नए सिरे से तैयार करनी होगी। इसी तरह तीसरी सीट है रामपुर। सपा के राष्ट्रीय महासचिव आजम खां की विधायकी रद होने के बाद उनके प्रभाव वाली सीट पर उपचुनाव है, लेकिन उनके करीबी ही उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। रामपुर लोकसभा सीट भाजपा उपचुनाव में जीत चुकी है।

उसने भाजपा का हौसला बढ़ाया और उसने मुस्लिमों में सबसे अधिक आबादी वाले पसमांदा समाज को अपने साथ जोड़ने के जतन तेज कर दिए। यदि सत्ताधारी दल इस बार अपनी रणनीति में सफल होता है तो देश की सियासत को बड़ा संदेश मिलेगा कि मुस्लिमों के लिए भाजपा अब अछूत नहीं है। तब शायद पश्चिम की कुछ सीटों पर लोकसभा चुनाव में कमल दल से पसमांदा समाज के प्रत्याशी ताल ठोंकते नजर आएं।

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