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किसान आंदोलन की आड़ में रचा जा रहा है पीएम नरेंद्र मोदी की हत्या का षडयंत्र ! क्या है पवार का इशारा?




क्या किसान आंदोलन की आड़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रची जा रही है। 
क्या किसान आंदोलन की आड़ में मोदी विरोधी उन्हें सचेत कर रहे हैं या चेतावनी दे रहे हैं।
क्या किसान आंदोलन की आड़ में देश विरोधी तत्वों को भीतर ही भीतर बड़ा समर्थन दिया जा रहा है।

ये सिर्फ सवाल नहीं है। जिस बात की आशंका थी वो बात अब मोदी विरोध की राजनीति करने वाले राजनेताओं की जुबान पर आने लगी है।


दरअसल एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने किसानों के प्रदर्शन और कृषि कानूनों पर एक बार फिर केंद्र सरकार को घेरा है। पवार का कहना है कि केंद्र सरकार को नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन को संवेदनशीलता के साथ संभालना चाहिए। उसे ध्यान रखना चाहिए कि अधिकांश प्रदर्शनकारी एक सीमावर्ती राज्य पंजाब से हैं।


पवार यहीं नहीं रुके। इशारों में राजनीति करने वाले पवार खालिस्तान आतंकवाद के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का जिक्र करते हुए यहां तक कह गए कि देश ने अतीत में पंजाब को परेशान करने की कीमत चुकाई है। पवार ने ये बातें पिंपरी चिंचवाड़ में पत्रकारों से कहीं हैं।



शरद पवार ने कहा कि वो विरोध स्थल पर दो-तीन बार जा चुके हैं। देश के कृषि मंत्री रह चुके शरद पवार ने कहा कि केंद्र सरकार का रुख तर्कसंगत नहीं लगता। पवार ने कहा कि आंदोलन में भाग लेने वाले हरियाणा और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों से हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर पंजाब से हैं।


इसके बाद पवार बोले कि केंद्र सरकार को मेरी सलाह है कि पंजाब के किसानों को परेशान न होने दें, यह एक सीमावर्ती राज्य है। अगर हम किसानों और सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को परेशान करेंगे, तो इसके अलग परिणाम होंगे।


शरद पवार बोले कि हमारे देश ने पंजाब को परेशान करने की कीमत चुकाई है, यहां तक कि इंदिरा गांधी की भी जान चली गई। दूसरी ओर पंजाब के किसानों, चाहे वे सिख हों या हिंदू, दोनों ने खाद्य आपूर्ति में अहम योगदान दिया है।


इसमें दोराय नहीं है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने बीते वर्षों में एक के बाद एक कई कानून ऐसे बनाए जो बरसों बरस से सियासत करने वालों को हजम नहीं हो रहे। यूं तो मोदी सरकार के हर बड़े फैसले और संसद मे पारित कानून का छोटा-बड़ा विरोध जरुर हुआ है। एनआरसी-सीएए और कृषि कानून ये दो ऐसे मामले हैं जिन पर विपक्षी दलों ने बड़े प्रदर्शन किए हैं। एनआरसी-सीएए का विरोध करते हुए लंबे समय तक देश के अलग अलग हिस्सों में मुसलमानों ने सड़कों को ब्लाक रखा। आंदोलन के नाम पर सरेराह अराजकता फैलाई गई। कोरोना की पहली लहर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश और सरकार के रुख को देखते हुए आंदोलनकारी सड़कों से हटे।


इसके बाद केंद्रीय कृषि कानून आया तो इसे किसान विरोधी बता कर विपक्ष ने किसानों को लामबंद किया। बड़े पैमाने पर धरना-प्रदर्शन और आंदोलन हुए। सिर्फ इतना ही नहीं पहले 26 जनवरी को दिल्ली और उसके बाद कुछ दिन पहले यूपी के लखीमपुर में कृषि कानूनों के खिलाफ जमा हुई भीड़ ने खुद को किसान बताते हुए जिस तरह की स्थितियां पैदा कीं और उसके बाद जो घटना हुई वो अफसोस और आक्रोश दोनों पैदा करने वाली है।

ये तो तय है कि देश में हुआ चाहे सीएए-एनआरसी का विरोध आंदोलन हो या किसानों के नाम पर अब हो रहा है आंदोलन देश विरोधी तत्व दोनों जगह मौजूद हैं। दोनों ही आंदोलनों में ना सिर्फ विदेशों से फंडिंग हुई बल्कि मीडिया के एक तबके को मैनेज करके बड़ी रकम इधर से उधर की गई। रकम देकर महिलाओं को तंबू कनात में ड्यूटी लगाकर बैठाया गया। इधर किसान आंदोलन में रह-रह कर खालिस्तान समर्थक नारे और भिंडरावाला की तस्वीरों वाले कपड़े साफ इशारा दे रहे हैं कि किसानों के नाम पर हो रहा आंदोलन किसी बड़ी साशिज के आगे पर्दा डालने का काम कर रहा है।



आपको याद दिला दें कि इससे पहले जब धमकी भरे ईमेल के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश का एनआईए ने खुलासा कर गिरफ्तारियां की थी तब शरद पवार ने पत्र को झूठा बताते हुए इस सहानुभूति जुटाने की कोशिश करार दिया था।


अब सबसे बड़ा सवाल है कि सक्रिय सियासत में दाहिना दिखाते हुए बाएं चल देने वाले शरद के बयान के क्या मायने हैं।


क्या वो पंजाब से आए प्रदर्शनकारियों को हुसका रहे हैं या उन्हें किसी साजिश का इशारा दे रहे हैं या प्रधानमंत्री के हमदर्द बनकर उन्हें सचेत कर रहे हैं।


आपको याद दिला दें इससे पहले जब प्रधानमंत्री को जान से मारने की धमकी वाले ईमेल के आधार पर एनआईए ने गिरफ्तारियां की थीं तो वो शरद पवार ही थे जिन्होंने पत्र को झूठा बताते हुए मोदी पर सहानुभूति बटोरने का आरोप लगाया था।


हांलाकि इसमें दोराय नहीं कि सीएए-एनआरसी और किसानों के नाम पर हो रहे आंदोलनों में केंद्र सरकार ने ना सिर्फ संयम का परिचय दिया है बल्कि टकराव की हर स्थिति को टालते हुए हर बार वार्ता का प्रस्ताव ही दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर दोनों में से किसी भी आंदोलन मे सरकार के साथ टकराव की नौबत आती तो परिणाम गंभीर होते। अब सरकार के धैर्य के आगे विपक्ष के सब्र का बांध टूट रहा है और दिल की बात जुंबा पर आ रही है।


टीम स्टेट टुडे



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