भाषा कोई भी हो पत्रकारिता तो पत्रकारिता ही होती है लेकिन भारत में हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता दो ध्रुवों में बंटी नजर आती है। भाषा का ये भेद सिर्फ किसी एक माध्यम तक सीमित नहीं है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाद अब सोशल मीडिया में भी इसका अंतर साफ दिखाई देता है।
भाषाई विविधता जो भारत की ख्याति प्राप्त है, उस पर अंग्रेजी पत्रकारिता का जोर ऐसा है जिसने इलाकाई पहचान को धूल धूसरित किया है। आजाद भारत में सामान्य भारतीयों की सोच को सूचनाओं और उनके विश्लेषण के स्तर पर आज भी आक्रांता गुलाम ही बनाए हुए हैं।
महान कृतियों की तुलना अंग्रेज़ी साहित्य से
हिंदी या अन्य स्थानीय भाषाओं में एक से बढ़ कर एक साहित्य लिखा गया, उपन्यास, कहानी, कविताएं लिखीं गईं लेकिन अंत अंत तक कहा यही गया कि अमुख का लेखन तो शेक्सपियर को मात दे रहा है। क्यों भाई , फिर तो ये मान लो मेघदूत शाकुंलतम के कालीदास, शेक्सपियर से महान है क्योंकि उनको मात देने वाला दूसरा नहीं हुआ या फिर विभेद या तुलना करना आवश्यक हो ही जाए तो कम से कम पैमाना सही कर लो।
भाषा चयन पर हावी अर्थतंत्र
हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के भेद का बहुत बड़ा कारण आर्थिक भी है। अंग्रेजी पत्रकारिता से जुड़े ज्यादातर पत्रकारों को जिस स्तर पर भुगतान किया जाता है वो इस खाई को और गहरा करता है। ये देश की त्रासदी ही है कि हिंदी समेत स्थानीय भाषाओं वाले अपने देश में अपनी भाषाओं पर स्वाभिमान तो दूर अक्सर हिकारत की नजरें रहती है।
वो जो लुटियन की दिल्ली में बैठकर अक्सर देश के आखिरी आदमी की तक्दीर का फैसला करते रहे दरअसल उनकी पहुंच कभी उस आदमी तक हुई ही नहीं। यही कारण रहा कि वो जिनके लिए नीतियां बनाते रहे उसकी भाषा, उस सूचना की भाषा, उसका व्याख्यान और विश्लेषण सबकुछ अंग्रेजी में रहा। वैश्विक पहचान और अनुदान की भूख के चलते कुछ भरे हुए पेट जो जिनके पैरों में ताकत थी उन्होंने भाषाओं को रौंद दिया। सिर्फ इतना ही नहीं अंग्रेजी दां मजबूत पैरों ने एक ऐसी फौज खड़ी की जिसने दूसरी भाषाओं पर खड़ी पत्रकारिता को अपाहिजों की श्रेणी तक पहुंचा दिया।
एक दौर था जब प्रिंट मीडिया में अंग्रेजी के पत्रकारों को वेतन हिंदी पत्रकारिता से जुड़े लोगों से ज्यादा था। हिंदी के अखबारों में खबरें ज्यादा होतीं, उनका विश्लेषण सटीक होता लेकिन उन लेखों और उनके लेखकों की बाजार को अंग्रेजी पत्रकारिता के बाजार के मुकाबले भाव कम मिलता। आर्थिक आधार पर ये विभेदीकरण बाद के दौर में इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया तक संक्रामक रोग की तरह फैल चुका है।
अंग्रेजी सभ्यता को सभ्यता और अन्य सभ्यताओं को दोयम दर्जे का मानने का ये सिलसिला कभी रुका ही नहीं। एक ही विषय पर हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता का भेद इतना ज्यादा हुआ है कि हिंदी के पत्रकारों ने अंग्रेजी पत्रकारों के आगे खुद को गौड़ ही मान लिया।
वैसे भारत में ये एक शोध का विषय हो सकता है कि अंग्रेजी जिसकी पहुंच और पकड़ एक दायरे तक सीमित है उसने हिंदी के विस्तृत साम्राज्य के सामने बाजार में अपनी पकड़ ज्यादा कीमती कैसे बना ली। प्रिंट मीडिया का सर्कुलेशन हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया की व्यूवरशिप हिंदी के आगे अंग्रेजी कहीं नहीं ठहरती। आय का एकमात्र परिचित साधन विज्ञापन होने के बावजूद अंग्रेजी माध्यमों की सीमित पकड़ हिंदी के विस्तार पर भारी पड़ी। वजह साफ है नीति नियंताओं ने हिंदी को हमेशा सियासत में उलझा कर रखा और हिंदी भाषियों, दर्शकों और पाठकों को वोटबैंक में।
हिंदी – राजनीतिक हथियार
एमडीएमके के प्रमुख वाइको ने संसद में कह दिया कि हिंदी में होने वाली चर्चाओं से सदन में बहस का स्तर गिरा है। दक्षिण भारत के एक सांसद का ये बयान बताता है कि सदन के अंदर बैठे लोगों में भी हिंदी और अंग्रेजी का अंतर किस कदर कूट कूट कर विभेद पैदा कर रहा है।
अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता की लड़ाई में स्थानीय भाषाओं ने तो सिर्फ अपने वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ी है। स्थानीय स्तर पर जिस तरह के अर्थोपार्जन नेटवर्क की आवश्यकता थी उसे कभी पनपने ही नहीं दिया गया। आज भी परंपरागत रुप से हो रही पत्रकारिता में बौद्धिकतावादी तमगा लेने में अंग्रेजी दां हर वो दमखम लगाते हैं जिससे उनका स्तर बाकियों की अपेक्षा ऊपर माना जाता रहे।
ये भी सच है कि आज पत्रकारिता के नाम पर जितनी लूटखसोट और मारामारी हिंदी या स्थानीय स्तर पर है उतनी अंग्रेजी में नहीं दिखती। बीते साल हिंदी पत्रकारिता को लेकर एक शोध हुआ था जिसमें इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि हिंदी मीडिया संस्थानों में अगर सबसे कम वेतनमान किसी का है तो वह हिंदी पत्रकारों का है। जबकि उसी संस्थान के अन्य विभागों में काम करने वाले कर्मचारी पत्रकारों से कहीं ज्यादा वेतन उठा रहे है। इसका मतलब यह हुआ कि हिंदी पत्रकारिता के नाम पर केवल दिखावा भर है। कई ऐसे संस्थान हैं जो वेतनमान तो दे नहीं रहे है बल्कि पत्रकारिता करने के नाम पर संस्थान का एक आईकार्ड दे देते हैं और यह अपेक्षा रखते हैं कि पत्रकार उनके संस्थान के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराएगा चाहे वह विज्ञापन के तौर पर हो या फिर पेड न्यूज के तौर पर। यह दुखद समय है हिंदी पत्रकारिता के लिए। जहां के पत्रकार लाचार और बेवश है संस्थानों के रवैये से ।
आज जरुरत है हिंदी पत्रकारिता से ऐसे छद्म पत्रकारों को खदेड़ने की और ऐसे संस्थानों पर लगाम लगाने की जो पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारिता छोड़ बाकी सब कुछ कर रहे हैं। ये भी सच है कि हिंदी पत्रकारिता किसी भी स्वरुप में की जाए भारत में फिलहाल उसके बाजार और बाजार में उसे पसंद करने वालों की कमी नहीं है।
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