बहनोई में मांगी नौकरी – मुख्यमंत्री ने थमाया उस्तरा
Updated: Feb 18, 2021

आज जब सियासत आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। परिवारवाद सियासत का अमृत है जिसे दूरदराज के रिश्तेदार भी चख रहे हैं। कोठियां और बंगले तो छोटी बात है पूरे पूरे आइलैंड नेताओं के नाम से मिल रहे हैं। ऐसे में एक मुख्यमंत्री इसी भारत की धरती पर ऐसा भी हुआ जिसने अपनी राजनीतिक समझ से सियासत का धुरी तो मोड़ दी लेकिन खुद के लिए एक मकान तक नहीं बना पाए। सिर्फ इतना ही नहीं इस मुख्यमंत्री के घर जब प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह गए तो दरवाजे में उनका सिर लड़ गया। उन्होंने कहा कर्पूरी घर का दरवाजा तो ऊंचा करवा लो- जवाब आया - ‘जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?
दो बार मुख्यमंत्री पद पर पहुंचने के बावजूद आजीवन कर्पूरी ठाकुर तामझाम और दिखावे से दूर रहे थे। कर्पूरी ठाकुर के जीवन काल में उनका कोई परिजन या रिश्तेदार राजनीति में कोई पद नहीं पा सका। लेकिन कर्पूरी ठाकुर के लालू यादव समेत सभी चेले अब राजनीति में हैं। 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन उनका सामाजिक न्याय का नारा आज भी बिहार में गूंजता है।

मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने ही दिया था पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 में समस्तीपुर के पितौंझिया गांव में हुआ था। इनके पिता गोकुल ठाकुर गांव के सीमांत किसान थे और अपने पारंपरिक पेशा नाई का काम भी करते थे। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कर्पूरी ठाकुर ने करीब ढ़ाई साल जेल में बिताया था। इसके बाद कर्पूरी जी 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 और 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता था। जननायक कर्पुरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और बिहार के दूसरे उपमुख्यमंत्री भी रह चुके थे।
नाई जाति में जन्म लेने वाले कर्पूरी सरल हृदय के राजनेता माने जाते थे। कर्पूरी ठाकुर सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति से जरूर थे, लेकिन उन्होंने राजनीति को जन सेवा की भावना के साथ जिया था। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जननायक कहा जाता था, वह हमेशा गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया, उनका जीवन लोगों के लिए आदर्श से कम नहीं है।
कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को देने के लिए एक मकान तक उनके नाम का नहीं था।
कर्पूरी ठाकुर को याद करना जरुरी है। ये बात सियासी लिहाज से इसलिए भी जरुरी है कि जिस बिहार में हज्जाम या नाई समाज की आबादी दो फ़ीसदी से कम है, उस समाज के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत के लिए इतनी हाय तौबा उनके निधन के 30 साल बाद क्यों मच रही है?
इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि कर्पूरी ठाकुर की पहचान अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के बड़े नेता की है। छोटी छोटी आबादी वाली विभिन्न जातियों के समूह ईबीसी में 100 से ज़्यादा जातियां शामिल हैं।
इसमें भले अकेले कोई जाति चुनावी गणित के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं हो लेकिन सामूहिक तौर पर ये 29 फ़ीसदी का वोट बैंक बनाती हैं। 2005 में नीतीश कुमार को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने में इस समूह का अहम योगदान रहा है। इस लिहाज से देखें तो ये समूह अब बिहार में राजनीतिक तौर पर बेहद अहम बन गया है, हर दल इस वोट बैंक को अपने खेमे में करना चाहता है।

कर्पूरी की विरासत पर दावा
दरअसल, मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुँचना लगभग असंभव ही था। वे बिहार की राजनीति में ग़रीब गुरबों की सबसे बड़ी आवाज़ बन कर उभरे थे।
अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढाई साल के मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं दिखता। ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे।
सामाजिक बदलाव के पुरोधा कर्पूरी
1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक 'कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं' कह कर उड़ाया जाता रहा।

मिशनरी स्कूलों में शुरु कराई हिंदी की पढ़ाई
इसी दौरान उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया। आर्थिक तौर पर ग़रीब बच्चों की स्कूल फी को माफ़ करने का काम भी उन्होंने किया था। वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया।
जब लिफ्ट में चढ़े चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी
1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया। बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया।
अंतरजातीय विवाह में जब पहुंचते थे ठाकुर
आज की तारीख में भले ये मामूली क़दम दिखता हो लेकिन सामाजिक और सियासी संदेश बड़ा था। उस दौर में समाज में कर्पूरी ठाकुर को कहीं अंतरजातीय विवाह की ख़बर मिलती तो उसमें वो पहुंच जाते थे। वो समाज में एक तरह का बदलाव चाहते थे, बिहार में जो आज दबे पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली हुई है, उसकी भूमिका कर्पूरी ठाकुर ने बनाई थी।
1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे।
मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था।
जब कैंप लगाकर बांटी नौकरियां