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राम मंदिर आंदोलन: "शहाबुद्दीन की चुनौती पर बजरंग दल की सौगंध" कारसेवा की कहानी – कारसेवक की ज़ुबानी : अनूप अवस्थी LIVE




22 जनवरी 2024 को भारतवर्ष समेत दुनियां भर के रामभक्तों के लिए उत्सव का मौका होगा जब अयोध्या जी में श्री राममंदिर मंदिर का लोकार्पण होगा और रामलला गर्भगृह में विधिवत प्राण प्रतिष्ठा के साथ विराजमान होगें।

पिछली सदी में अस्सी के दशक का वो आखिरी दौर था तब जब राममंदिर आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी। भारत के कोने कोने से रामभक्त अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए अपने घरों से निकल पड़े। भयंकर संघर्ष हुआ। दंगे हुए, गोलियां चलीं, सैकड़ों कारसेवक बलिदान हो गए। उस दौर में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अयोध्या आंदोलन की धुरी बना। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में लाखों कारसेवकों की तरह लखनऊ के अनूप अवस्थी ने भी अपना योगदान दिया।


स्टेट टुडे अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि पर भव्य श्रीराममंदिर निर्माण के पूर्ण होने के पावन मौके पर ऐसे ऐतिहासिक मौके के साक्षी रहे कारसेवकों की कारसेवा की कहानी कह रहा है..उन्हीं की जुबानी –


इस महा अभियान के दौरान स्टेट टुडे टीवी को जानकारी हुई कि लाटूश रोड स्थित श्री ऋषि औषधालय नामक प्रतिष्ठान के मालिक अनूप अवस्थी ने राममंदिर आंदोलन में बहुत सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था। अनूप अवस्थी राममंदिर आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले संगठन बजरंग दल के संयोजक नियुक्त हुए थे। मैं उनसे मिलने पहुंचा। धोती-कुर्ते और सदरी में अनूप अवस्थी जी कुर्सी पर बैठे थे। सामने मेज लगी थी और कुछ कुर्सियां लगीं थीं। सहज अभिवादन के बाद अनूप जी को अपने पहुंचने का उद्देश्य बताया। आयु के करीब छ दशक बीतने के बावजूद राममंदिर आंदोलन का नाम आते ही अनूप अवस्थी जी के चेहरे पर जिस तरह का तेज दिखा... वो अद्भुत था। मेरे निवेदन पर अनूप अवस्थी जी ने आंदोलन से जुड़ने का अपना किस्सा बताना शुरु किया...उन्होंने कहा -   



सन् 1986-87 की बात है......तब वो इस बात से अनभिज्ञ थे कि राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए बजरंग दल नाम के संगठन का गठन किया गया है। अतीत की स्मृतियों में खोते हुए अनूप अवस्थी बोले ....


आंदोलन की शुरुआत तब हुई...जब बिहार के एक गुंडे-माफिया शहाबुद्दीन ने हिंदू समाज को चुनौती देते हुए कहा कि वो और उसके साथी अयोध्या में नमाज अदा करेंगे। शहाबुद्दीन की चुनौती को विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के लोगों ने स्वीकार तो कर लिया लेकिन उनके पास उस समय ना तो लोग थे और ना ही कोई ऐसी योजना या तैयारी जिससे उस चुनौती का जवाब दिया जा सके। उस समय बजरंग दल की अगुवाई विनय कटियार कर रहे थे जिन्होंने शहाबुद्दीन की चुनौती को स्वीकार किया था।


उस दौर में चौक क्षेत्र के चौपटिया पर मेरा निवास हुआ करता था। वहां हम अपने साथियों के साथ घूमा करते थे। वहां अखाड़े में हमारे अच्छे मित्र थे। कोई बात पड़ जाए तो अखाड़े में रहने वाले मित्र हमेशा साथ देते थे।  विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के लोगों को कहीं से मेरा परिचय मिला। हमारा सहयोग लेने के लिए वो ढूंढते हुए हमारे घर पहुंचे।


हमने उनकी बात को बहुत ध्यान से सुना और फिर इनकार कर दिया। ठीक उसी समय हमारे ताऊ जी पद्मश्री नंदकुमार अवस्थी जी जिन्होंने कुरान शरीफ और कई संहिताओं का देवनागरी में अनुवाद किया था....उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि इस काम में मुझे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की मदद करनी चाहिए। ताऊ जी की प्रेरणा मेरे जीवन का लक्ष्य बन गई। दूसरे ही दिन हमने अपनी स्वीकृति दे दी। नौजवानों से भरी दो बसें लेकर हम राजेन्द्र नगर स्थित संघ कार्यालय भारती भवन पहुंचे। जिसके पास जो हथियार था वो उसे लेकर आया।  कोई धनुष बाण, कोई त्रिशूल, कोई तलवार, कोई भाला जिसे जो मिला वही उसे हथियार बना कर ले आय़ा।  वहां से हम सब लोग अयोध्या पहुंचे। डेरा डाला गया मणिराम छावनी में। देर रात हो गई थी। वहीं मणिराम छावनी में विश्राम किया। सुबह अयोध्या के सड़कों पर अलग अलग दिशाओं में हम लोग निकल पड़े।


उस दिन एक बस कानपुर से भी आई थी। उसे हरी दीक्षित जी और प्रकाश शर्मा जी लेकर आए थे। हरी दीक्षित जी अब इस दुनिया में नहीं है।  उन्नाव से राजेंद्र निगम अपने साथियों के साथ अयोध्या पहुंचे थे।  उस समय के तमाम कार्यकर्ता अब हमारे बीच नहीं हैं। अलग-अलग जिलों से पहुंचे सैकड़ों कार्यकर्ताओं के जत्थे अयोध्या की सड़कों पर चलते रहे।


उस समय नारा लग रह था -- बच्चा-बच्चा राम का जन्म भूमि के काम का। कई नारे उसी समय गढ़े गए।  शहाबुद्दीन और अन्य विधर्मियों के खिलाफ विरोध में नारों से अयोध्या का आसमान गूंजता रहा। कार्यकर्ताओं के हाथों में जो शस्त्र थे.. उनको लहराते हुए जबरदस्त प्रदर्शन हुआ।

 



त्याग दिए पाश्चात्य परिधान -


शाम का 5:30 बज गया। कोई शहाबुद्दीन, कोई मुसलमान नाम की चिड़िया अयोध्या की सड़क पर नहीं उतरी। कई मीडिया कर्मी थे, जिन्होंने कवरेज की और फोटो वगैरह खींची। थोड़ी शाम और ढली तो सारे जत्थे मणिराम छावनी वापस आ गए।


मणिराम छावनी में महंत नृत्य गोपाल दास जी, रामदासचंद परमहंस जी, महंत अवैद्यनाथ जी सभी लोग मौजूद थे। सभी लोगों ने एक एक कर हम लोगों को संबोधित किया।


उस दिन महंत अवैद्यनाथ जी ने संबोधित करते हुए कहा कि आज इतना नौजवान राम के काम के लिए आया है लेकिन एक भी नौजवान धोती कुर्ता में नहीं है। क्या धोती कुर्ता हिंदूओं के लिए सिर्फ कर्म-कांड भर के लिए रह गया है...। अगली बार जब आप लोग आंदोलन में आएं तो सब धोती कुर्ता पहन कर आएं।  


इसके बाद जब हम लखनऊ अपने घर लौटे तो हमारे पास जितने भी पाश्चात्य शैली के कपड़े थे.. पैंट-शर्ट-कोट आदि को हमने वहीं तिलांजलि दे दी। पश्चिमी परिधान का पूरी तरह त्याग कर दिया। तब से लेकर वर्तमान समय तक महंत अवैद्यनाथ जी की प्रेरणा से मैंने सिर्फ धोती कुर्ता ही पहना है।


आंदोलन में दायित्व और उसका निर्वाह -


समय बीता। कुछ दिन बाद भारती भवन में बजरंग दल की एक बैठक बुलाई गई। उसमें उस बैठक में त्रिवेदी मिष्ठान भंडार वाले वेद प्रकाश त्रिवेदी को बजरंग दल का विभाग संयोजक और मुझको लखनऊ महानगर का संयोजक नियुक्त किया गया। घोषणा हो गई। अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिए हम सबने संगठन को खड़ा करना प्रारंभ किया। विद्यालयों में छात्रों के बीच गए। उस दौर में छात्रसंघ के चुनाव हुआ करते थे, छात्रनेता हुआ करते थे। हम लोगों ने अधिक से अधिक नौजवानों को बजरंग दल में शामिल करने के उद्देश्य से छात्रसंघ के नेताओं से संपर्क साधा। छात्रसंघ के नेताओं में के.के.सी. से माधुरी भूषण तिवारी, विद्यांत कॉलेज से विभूति नारायण पांडे, लखनऊ विश्वविद्यालय से रामसागर द्विवेदी को जोड़ा। इन सबने अपने अपने कालेजों में छात्रों को मंदिर आंदोलन के लिए प्रेरित किया और संगठन के साथ जोड़ा। इसके बाद सभाएं शुरू हुईं। कविता पाठ से, जोशीले भाषणों से जन-जन का एकत्रीकरण हुआ, भीड़ उमड़ने लगी। आंदोलन आगे बढ़ा। रोजाना एक नया कार्यक्रम देने का यह क्रम चलता रहा।

 

नाग पंचमी के पावन पर्व पर, “आओ कम्युनिस्ट दूध पियो”


आंदोलन की आग बढ़ी तो फिर उस समय मुलायम सिंह और अन्य विधर्मियों ने हम लोगों को सांप्रदायिक कहना शुरु कर दिया। विधर्मियों ने कहा कि हिंदू सांप्रदायिक हैं और सांप्रदायिकता फैला रहे हैं। एक तरह से हम आंदोलनकारियों को गाली बकना शुरू कर दिया।


ऐसे में मुलायम सिंह और अन्य विधर्मियों को जवाब देना जरुरी हो गया। बजरंग दल की ओर से हम लोगों ने अमीनाबाद के गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में एक गोष्ठी का आयोजन किया। गोष्ठी का विषय था – सांप्रदायिक्ता क्या सांप्रदायिक कौन ! वो नाग पंचमी का दिन था। इस गोष्ठी में जितने भी पंथ थे, उस समय जितने भी राजनीतिक दल के नेता थे उन सभी को आमंत्रण भेजा गया। सिख पंथ, बौद्ध पंथ के साथ साथ मुसलमानों से एजाज रिजवी शामिल हुए। गोष्ठी में कल्याण सिंह, महंत अवैद्यनाथ जी, श्रीषचंद दीक्षित, बलराज मधोक जी आदि मुख्य अतिथि थे। नागपंचमी का दिन था और उस दिन सांप को दूध पिलाया जाता है।   


हमने वहीं एक बैनर लगवा दिया और उस पर लिखवाया था - नाग पंचमी के पावन पर्व पर आओ कम्युनिस्ट दूध पियो। बैनर टांगने के बाद हमने उसी के नीचे भट्टी लगवा दी और कढ़ाव चढ़ा दिया।


रेखा गुप्ता उस समय सिटी मजिस्ट्रेट थीं। उन्होंने कहा कि यह बैनर हटाओ...यह उचित नहीं है। हमने कहा यहां सभी नौजवान दूध पी रहे हैं। किसी को आपत्ति नहीं है। आप क्यों आपत्ति कर रही हैं। हम बैनर क्यों हटा दें। बड़ी देर तक बहस होती रही।

हम लोगों को गोष्ठी के लिए सिर्फ हॉल की ही अनुमति मिली थी वह भी बड़ी मुश्किल से। लेकिन, हमने लाउडस्पीकर वगैरह चुपके से बाहर बंधवा रखे थे, केवल तार जोड़ना रह गया था। कार्यक्रम प्रारंभ हुआ तो हमने तार जोड़ दिए।


बारिश का मौसम था। मूसलाधार पानी बरसा लेकिन झंडेवाला पार्क और पार्क के चारों बारिश की परवाह किए बगैर लोगों से पूरा इलाका पट गया। जबरदस्त उत्साह और अद्भुत नजारा। बजरंग दल में जिम्मेदारी मिलने के बाद आंदोलन का वह पहला कार्यक्रम कराया। कार्यक्रम सफल रहा। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के वरिष्ठ नेताओं ने लोगों को संबोधित किया।

 



जब आजम खान ने कहा भारत माता को डायन


उत्तर प्रदेश में उस समय मुलायम सिंह की सरकार थी। उसी समय एक बड़ी घटना हुई। मुलायम सरकार में कैबिनेट मंत्री आजम खान ने भारत माता को डायन कह दिया। भारत माता का यह अपमान बर्दाश्त के बाहर हो गया। बजरंग दल के नौजवान बजरंगियों का खून उबाल मारने लगा। ऐसे में हम बजरंगियों ने गुरिल्ला युद्ध का प्रयोग किया। करीब 50-60 बजरंगी अचानक आजम खान के ऑफिस में पहुंच गए। आजम खान उस वक्त आफिस में नहीं थे। ये किस्मत थी आजम खान की...जो उस समय मुलाकात नहीं हुई। अगर मिल जाते तो उनका क्या हाल होता....इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय सभी नौजवान आजम के खिलाफ गुस्से से भरे थे...उनका जोश सब कुछ ले डूबता। बड़ी बात यह भी थी कि बजरंगियों की गुरिल्ला रणनीति के कारण इस कार्यक्रम का पता प्रशासन को भी नहीं था। वहीं आजम के दफ्तर में उन्हीं की टेबल पर जो लेई और गोंद रखा था उसे लगाकर अपना ज्ञापन उसी पर चिपका दिया।


आजम का मामला यहीं नहीं रुका। डालीगंज में एक अरुण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना थे। जो 5 लाख की थैली देकर के समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर रहे थे। हमको पता चला तो हम अन्ना के घर गए। हमने कहा कि अन्ना महाराज तुम राजनीति करो... समाजवादी पार्टी ज्वाइन करो... इससे हमारा कोई मतलब नहीं है। परंतु हमारा एक अनुरोध है.... कि आपकी ज्वाइनिंग के समय डालीगंज में वो आजम खान नहीं आना चाहिए जिसने भारत माता को डायन कहा है। अगर आजम डालीगंज आया तो आपका यहां जो भी प्लान है वह सब चौपट हो जाएगा। अन्ना ने हमारी बात को स्वीकार किया और तुरंत मुलायम सिंह को फोन लगाया। हमारे सामने ही अन्ना ने मुलायम सिंह से कहा कि आप आजम खान को डालीगंज में मेरी जॉइनिंग के समय मत लेकर के आइएगा वरना यहां बवाल हो जाएगा। वाकई... अन्ना ने हमारी बात का सम्मान रखा। बजरंगियों की भावनाओं का मान रखा। आजम खान डालीगंज की धरती पर नहीं आ पाए।  


उसी कालखंड में सांप्रदायिकता विरोधी रथ आ रहे थे। बेगम हजरत महल पार्क में कार्यक्रम था। उसमें भी कई राजनीतिक दलों के कई नेता सम्मिलित होने वाले थे। रात करीब 12:30 -  1:00 बजे का समय रहा होगा।  हम पांच-सात लोग मुलायम सिंह के आवास पहुंचे। मुलायम सिंह ने हम लोगों को भीतर बुलाया, मिले और पूछा, क्या बात है... हमने कहा -  देखिए नेताजी कल आपकी बेगम हजरत महल पार्क में सभा है। उस सभा में कर्पूरी ठाकुर के साथ साथ सभी लोग मौजूद रहेंगे लेकिन वहां पर आजम खान नहीं आएगा। बाकी.... आप रैली करिए... जो चाहे करिए... लेकिन आजम खान वहां नहीं आना चाहिए जिसने भारत माता को डायन कहा है। हम बजरंगी उसकी सभा नहीं होने देंगें। मुलायम सिंह ने कहा मैं भी राम भक्त हूं। अपनी जेब से एक छोटी सी हनुमान चालीसा निकाल करके दिखाई। हमने कहा - वह सब ठीक है लेकिन सभा में आजम खान नहीं आएगा। मुलायम सिंह ने कहा - लेकिन आप लोग इसके बावजूद पथराव करेंगे।  हमने कहा -  कुछ नहीं होगा। लेकिन, आजम खान आया... तो सब कुछ हो सकता है, फिर उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं।


मुलायम सिंह ने भी बजरंग दल की बात सुनी और समझी। यह बजरंग दल का दबदबा और हनक थी कि मुलायम सिंह की भी हिम्मत आजम खान को लेकर बेगम हजरत महल पार्क पहुंचने की नहीं हुई। आजम खान बेगम हजरत महल पार्क की उसे रैली से दूर रखे गए।

 

हर दल को भय – शिवा के संगी – जय बजरंगी – बजरंग दल


इसी तरह एक बार हेमवती नंदन बहुगुणा जी पदयात्रा कर रहे थे। वह रात निराला नगर गेस्ट हाउस में रुके। हम लोग रात में वहां पहुंचे और उनसे पूछा कि आपका राम जन्मभूमि के संदर्भ में क्या कहना है, क्या टिप्पणी है। बहुगुणा जी ने कहा कि मैं पांच लोगों के सामने कुछ नहीं कहूंगा, कुछ नहीं बताऊंगा। कल सभा है चौक में, लोहिया पार्क में...आप वहां आओ। वहां हमको सुनिए। मैंने उनसे कहा वहां कोई ऐसा बयान मत दीजिएगा जिससे विवाद पैदा हो। मेरा आवास है चौक क्षेत्र में। कोई अनर्गल बात आपने कह दी राम मंदिर या राम जन्मभूमि को लेकर... तो फिर मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है। हम आपको आगाह भी कर रहे हैं। हेमवती बहुगुणा जी ने कहा कि पांच लोगों के सामने नहीं मुझे जो कुछ कहना है। मैं वहीं कहूंगा। हमने कहा -  पांच लोगों का नेतृत्व तो श्रीकृष्ण जी ने भी किया था। आप इस भूमिका का निर्वहन करते हुए बोलिए। उस दिन तो बहुगुणा जी कुछ नहीं बोले फिर दूसरे दिन चौक क्षेत्र में उनकी सभा हुई। उन्होंने कहा कि धर्म - धर्म की लड़ाई है। धर्म की लड़ाई में वैमनस्यता नहीं आनी चाहिए। उन्होंने उस सभा में राम जन्मभूमि का नाम भी नहीं लिया। अपनी सभा करके कार्यक्रम समाप्त कर दिया। इस तरह से हम लोगों की विजय होती चली गई।

  



जब दस-दस पैसे जोड़कर कर खड़ा किया आंदोलन


1989 की बात है। राममंदिर आंदोलन ने तेजी पकड़ी। वह एक ऐसा समय था जब आंदोलन तो आगे बढ़ रहा था

लेकिन आर्थिक अभाव कई बार आड़े आ जाता था। विपरीत परिस्थितियों में धन कहां से आवे ये सवाल था!! तब हम लोगों ने “गर्व से कहो हम हिंदू हैं” का स्टीकर बनवाया। छोटा स्टीकर बनवाने की कीमत 30 पैसे थी और बड़े स्टीकर की 40 पैसे ।  उस स्टीकर को हम लोग एक रुपया का बेचते थे। जवाहर भवन, शक्ति भवन और भी कई अन्य ऑफिस में हम लोग स्टीकर लेकर जाते और वहां काम करने वालों से उसे लेने का निवेदन करते। लोग हमारे स्टीकर ₹1 देकर खरीद तो लेते थे लेकिन चिपकाते नहीं थे। वह स्टीकर मेज पर रख शीशे के अंदर या फिर अपनी दराज में या फाइल में लगा लेते थे। स्टीकर बेचकर जो 60 पैसे बचते थे उसी से भारत भर से आ रहे कारसेवकों को ठहराने, उनके भोजन पानी आदि की व्यवस्था होती थी। अगर कहीं कोई कार्यक्रम करना होता...मंच लगाना होता तो वह भी उसी साठ-सत्तर पैसे को जोड़कर संपन्न कराया जाता था। मंदिर आंदोलन ने धार पकड़ी तो बड़ी मीडिया कवरेज भी हुई। व्यापक मीडिया कवरेज से चारों तरफ से लोग आने लगे। आंदोलन के प्रति जागरूकता बढ़ने लगी। लोग अपनी हिम्मत बढ़ाकर बाहर आने लगे। संख्या बढ़ी तो फिर आंदोलन उस स्तर तक पहुंच गया जहां ना तो लोगों को कुछ बताने-जताने की जरूरत रह गई और ना ही धन का अभाव रह गया।



बंद का मतलब सब बंद


फिर तो यह स्थिति बन गई की बजरंग दल की एक हुंकार पर शहर के लोग आर पार होने लगे। अगर बजरंग दल की ओर से अपील हो जाए कि कल लखनऊ बंद... तो बंद... सड़क पर फिर एक हरी मिर्च भी नहीं मिल सकती थी। बड़ी दुकानों की तो बात छोड़िए रेहड़ी-पटरी-ठेले वाले भी राम भक्ति में अपनी तरफ से कोई कसर रखना नहीं चाहते थे। बंद को सफल बनाने के लिए सब एकजुट हो जाते थे। यह सब कुछ लोगों की अपनी चेतना और स्वेच्छा से होने लगा।


सरकार जगाओ – घंटा बजाओ


आंदोलन का स्वरूप आ गया था। वीपी सिंह की सरकार आ गई। राम जन्मभूमि के काम पर निर्णय लेने के लिए वीपी सिंह ने माननीय अशोक जी सिंघल जी चार महीने मांगे। अशोक जी ने सरकार को 4 महीने दे दिए। यह स्वाभाविक भी था कि भारत का प्रधानमंत्री अगर 4 महीने मांग रहा है तो देने भी चाहिए। इसके बाद जब अशोक जी लखनऊ आए तो हम लोगों ने उनसे कहा कि आपने सरकार को 4 महीने का समय तो दे दिया लेकिन आंदोलन तो नित्य का होता है। 4 महीने बाद हम एक बार फिर से नौजवानों को बुलाए... इकट्ठा करें... ऐसा किसी काम के लिए मुश्किल होता है। आंदोलनकारी चार महीने में अपने अपने काम धंधे में लग जाएंगे तो फिर उन्हें बुलाना कठिन होगा। सवाल उठा कि फिर क्या किया जाए। मैंने कहा कि, एक कार्यक्रम की योजना मेरे दिमाग में आ रही है....यदि आप सहमति दें तो हम इसको आगे बढ़ाएं। कार्यक्रम था... सरकार जगाओ घंटा बजाओ। हम लोग विधानसभा के बाहर खड़े होते हैं और मुलायम सिंह और वीपी सिंह को सचेत करते हैं। अशोक जी ने कहा यह कार्यक्रम ठीक है... करो। फिर हम 50-60 लोग विधानसभा के बाहर पहुंचे और वीपी सिंह होशियार मुलायम सिंह होशियार चार माह में एक माह पूरा हुआ फिर ना कहना हमको समाचार नहीं दिया। नारा लगाने के बाद बाद हम लोग 30 बार शंख-घंटा-घड़ियाल बजाते और फइर झोले में रखा कर वापस चले आते।

 

जब प्रशासन ने रोका शिवाजी जयंती मनाने से


मीडिया उस समय इसको भी कवर कर कर रहा था। पहला महीना, दूसरा महीना, तीसरा महीना और फिर चौथा महीना जून का था। पांच-छ जून को शिवाजी जयंती पड़ी। शिवाजी जयंती मनाने के लिए बजरंगदल ने कैसरबाग में बारादरी के बगल में बटलर का बोर्ड उखाड़ कर फेंक दिया और वहां शिवाजी उद्यान का बोर्ड लगा दिया। हम लोगों ने तय किया कि इसी जगह पर शिवाजी जयंती मनाई जाएगी। प्रशासन को कार्यक्रम की सूचना दे दी गई। सभी बजरंगी मॉडल हाउस से चल कर लादुश रोड होते हुए कैसरबाग पहुंचे तो कैसरबाग चौराहे को तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने पूरी तरह से छावनी में तब्दील कर दिया था। 


प्रशासन ने हम लोगों को किसी भी प्रकार की सभा, गोष्ठी या जयंती मनाने अनुमति नहीं दी।  सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों में मौके पर रेखा गुप्ता, उमाशंकर द्विवेदी आदि मौजूद थे। प्रशासन हम लोगों से वापस जाने के लिए कह रहा था। तब मैंने इनसे कहा कि अगर हम लोग शिवाजी की जयंती यहां नहीं मनाएंगे तो किस देश में मनाएंगे. कहां मनाएंगे कोई स्थान हमको बताइए।


अधिकारी बोले आप कहीं भी मनाएं...यहां नहीं करने देंगे...यहां आपको अनुमति नहीं है। फिलहाल हमको यही आदेश प्राप्त है। फिर हम लोग वहां से आगे बढ़कर ग्लोब पार्क पर पहुंचे। वहां पर हमने दरी और चांदनी बिछाई, माइक लगाया, शिवाजी की फोटो वगैरह लगा ली। कार्यक्रम शुरु होता ठीक उसी समय उस वक्त के एसपी सिंधु वहां आ गए। मुझसे बोल - मिस्टर अवस्थी, यू आर अंडर अरेस्ट... और हम लोगों को गिरफ्तार कर लिया। हम पांच छ लोगों को पुलिस की गाड़ी में बैठा दिया गया। हम लोगों को बस से मोहनलालगंज लाया गया। बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की खबर जैसे ही मोहनलालगंज पहुंची स्थानीय व्यापारियों ने पूरा बाजार एक झटके में बंद कर दिया। चारों तरफ सन्नाटा पसर गया। रात में करीब 1:30 बजे हम लोगों को वजीरगंज थाने लाया गया और फिर वहां से हम लोगों को फतेहगढ़ जेल भेजा। 12 जून को हम लोगों की रिहाई हुई।


सड़क पर नमाज का हुआ विरोध


धीरे-धीरे अयोध्या आंदोलन चलता रहा। सन 1988-89 की बात है। शाम का समय था। हम और हमारे एक साथी प्रताप मार्केट की तरफ से अमीनाबाद आ रहे थे। अमीनाबाद थाने के पास जो सामने मस्जिद है उसके पीछे वाली गली का वाकया है। हमारी नजर पड़ी तो हमें लगा कि कुछ गड़बड़ है। गली में घुस कर देखा तो एक वर्दीधारी दरोगा को मुसलमान बुरी तरीके से पीट रहे थे। अमीनाबाद थाने में मौर्य नाम का एक इंस्पेक्टर हुआ करता था.. उसी को कुछ मुसलमान बुरी तरह पीट रहे थे। हम लोगों ने उनको रोका और पूछा क्यों मार रहे हो..?? छोड़ो इसको। दरोगा को पीटने वाले मुसलमान बोले कि दरोगा हमको नमाज नहीं पढ़ने दे रहा है। हमने कहा जाओ पढ़ो नमाज, कौन तुम्हें रोक रहा है ??


जब हम लोग उसे दरोगा को गली से निकाल कर बाहर लाए तो देखा अमीनाबाद थाने के साथ-साथ पूरे अमीनाबाद को चारों तरफ से मुसलमान ने घेर रखा था। इधर गड़बड़ झाला, उधर श्री राम रोड, उधर माता बदल पंसारी की दुकान.. हर तरफ मुसलमानों ने रास्ते बंद कर रखे थे और नमाज सड़क के ऊपर अदा कर रहे थे। सड़क पर नमाज पढ़ने का यह इस तरह का यह पहला वाकया था।


दरोगा ने बताया कि मैं इन लोगों को सड़क पर नमाज पढ़ने से मना कर रहा था तो यह लोग मुझे घसीट कर गली में ले गए और मुझे पीटने लगे। इत्तेफाक था कि उस दिन उसी समय नाका थाने पर किसी सोनकर बंधु का मर्डर हो गया था तो पुलिस का मोबिलाइजेशन उधर हो गया था। सारी पुलिस फोर्स वहीं थी। वह दरोगा उसे समय थाने में अकेला था। फिर हम थाने के अंदर गए। हमने कहा वायरलेस लेकर आओ। वायरलेस मंगाकर कहा कि वायरलेस करो -  कि बजरंग दल के संयोजक अनूप अवस्थी इस समय अमीनाबाद थाने के अंदर मौजूद हैं और अगर अमीनाबाद परिसर में नमाज सड़क पर तत्काल बंद नहीं कराई गई तो यहां बवाल हो जाएगा....जो स्वरूप खड़ा होगा उसका जिम्मेदार प्रशासन होगा ।


दरोगा ने वायरलेस किया और मैं बाहर आ गया। उसका परिणाम यह हुआ की रात में चौपटिया के सहादतगंज थाना से हमारे घर फोर्स पहुंची और उसने कहा कि अनूप अवस्थी जी आपको 12:00 बजे कलेक्ट्रेट आना है। अगले दिन हम और हमारे मित्र दोनों लोग कलेक्ट्रेट पहुंचे। वहां पर सारे प्रशासनिक अधिकारी और शहर के छटे हुए मौलाना मौजूद थे। हमने कहा- हां, बताइए, आपने हमें याद किया। तो अधिकारी बोले क्या समस्या है मुसलमानों की 7 दिन की तराबी होती है.. हो जाने दो।


हमने अधिकारियों से कहा - देखिए.. रामनवमी है और हमारा कवि सम्मेलन होना है। माननीय अशोक जी सिंघल जी से बात की है वह उस कार्यक्रम में आ रहे हैं। अधिकारियों ने कहा कि नहीं आप कवि सम्मेलन दूसरी जगह कर लीजिए। झंडे वाले पार्क में हम अनुमति दिए दे रहे हैं। हमने कहा - कि झंडे वाले पार्क में एक तो राममूर्ति नहीं है ना ही राम दरबार है। जबकि अमीनबाद में थाने के बगल में जो मंदिर है उसमें श्रीराम दरबार प्रतिष्ठित है और उसी के चलते यह सड़क श्री राम रोड कहलाती है। तो अगर आप पार्क में राम दरबार की मूर्ति स्थापित कर देते हैं और उसे पार्क का नाम बदल देते हैं तो चलिए मैं वहां पर कार्यक्रम कर लूंगा।


अधिकारियों ने लगभग धमकी देते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। जो कहा जा रहा है समझ लो। बहुत देर तक बहस मोबाहिसा चलता रहा। बहसबाजी होने के बाद मुझे क्रोध आ गया। तब मैंने उसी प्रांगण में उनसे कहा कि देखिए, इनका इस्लाम इतना नाजुक है कि बगल में गड़बड़झाला है और कोई सुंदर औरत निकल जाए तो इनका इस्लाम खतरे में... किसी के घर में बच्चा हो और गोला दाग दें तो इनका इस्लाम खतरे में.. उधर हमारे सोनकर बंधु सब्जी और फल बेचते हैं गाय टकरा जाए तो इनका इस्लाम खतरे... अरबों-खरबों की संपत्ति क्षण भर में स्वाहा हो जाएगी। आप लोग जिम्मेदार हैं। आप लोग इनकी पैरवी भी कर रहे हैं। आप लिख कर दे दीजिए कि किसी संपत्ति का नुकसान होगा तो भरपाई हम करेंगे। आप किस आधार पर कह रहे हैं कि हम इनको वहां पर नमाज पढ़ने दें। ना इनका वहां पर मकान है, ना दुकान है, कुछ भी तो नहीं है इनका वहां पर। नमाज क्यों पढ़ेंगे। बीच सड़क पर रास्ता बंद करके यह नमाज क्यों पढ़ना चाहते हैं। मैंने कहा, मैं कुछ नहीं जानता। इतना कह कर मैं कलेक्ट्रेट से चल पड़ा। अमीनाबाद में अपना प्रतिष्ठान थाने की लाइन में ही था। हम वहीं पर बैठे थे। रात 11:30 बजे पुलिस आई और मुझसे कहा कि आपको कैसरबाग कोतवाली पहुंचना है। जब हम रात में कैसरबाग कोतवाली पहुंचे तो वहां सारे प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे। उन लोगों ने हमसे कहा कि हम सब सरकारी कर्मचारी हैं, मुलाजिम हैं, कोई बात हो तो आप हमारा साथ दीजिएगा। मैंने तुरंत उन्हें आश्वस्त किया कि अगर कोई ऐसी बात है या बात आएगी तो हम आपके साथ में हैं। अधिकारियों ने मुझसे कहा कि हम अपनी कार्रवाई आपके कथानुसार ही करने की कोशिश कर रहे हैं कि यह लोग वहां से हट जाएं। जगह खाली हो जाए। उस समय के जो प्रशासनिक अधिकारी थे उन्होंने 7 दिन की तराबी 3 दिन में खत्म कराई और मस्जिद में 5:00 बजे ताला डाल दिया। उसके बाद पूरे क्षेत्र को छावनी बना दिया गया।  कसाईबाड़े से लेकर बंगाल होटल तक.. ऊपर इमारतों की चोटियों पर, सड़कों पर सब बंदूकधारी खड़े हो गए। फिर पोल के दूसरी तरफ मंच बना। मेहता टेंट हाउस वालों ने टेंट लगाया। सुंदर साउंड वालों ने अपना साउंड लगाया। जो जैसा सहयोग कर सकता था वह किया और पैसे भी नहीं लिए।


उस कवि सम्मेलन में देश के सारे ओजस्वी कवि पहुंचे। पूरा शहर उस रात कवि सम्मेलन में उमड़ पड़ा। श्रीराम रोड पर होने वाला यह कवि सम्मेलन 21 बरस तक चलता रहा। उस दौर में देश भर की कोई हस्ती ऐसी नहीं थी और कोई कवि ऐसा नहीं था जो उस कवि सम्मेलन में शामिल ना हुआ हो।

 

 

...और मुलायम बोले – “परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा” 


इस बीच हमारी शादी भी घर पर तय कर दी गई। 20 जून को हमारी शादी हो गई। ब्याह के बाद मुश्किल से 10 - 12 दिन हम घर पर रुके होंगें फिर आंदोलन में निकल पड़े। मौका था कारसेवा करने का। उस समय मुलायम सिंह ने कहा कि परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा। यह बात है सन 1990 की। एक बार फिर हम बजरंगियों ने उसे चुनौती को भी स्वीकार किया। वह ऐसा दौर था जब सारे रास्ते बंद... सारे साधन संसाधन बंद.... अयोध्या की तरफ जाने वाले हर मार्ग पर सरकार की नजर और पुलिस का पहरा। फिर भी, अयोध्या में कारसेवा के लिए जब हम कारसेवकों का जत्था निकला तो हजरतगंज पहुंचते ही बाजार एक झटके में बंद हो गया। वहीं हजरतगंज में हम लोगों की गिरफ्तारी हुई। हमारी बस जब निशातगंज पुल के ऊपर पहुंची और सिविल लाइन की तरफ मुड़ने लगी तब हम लोगों ने बस का जबरदस्ती डायवर्जन करा दिया। ड्राइवर से कहा कि अयोध्या चलो। जब ड्राइवर से जोर जबरदस्ती करके हम लोगों ने बस अयोध्या की तरफ मुड़वाई तो आगे मटियारी के पास रोड़ी-गिट्टी का एक चट्टा लगा था। ड्राइवर ने बस को उसी चट्टे में घुसा दिया और बस रुक गई। बस रुकते ही हम लोगों को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।


गिरफ्तारी के बाद वहां से हम लोगों को सिविल लाइन लाया गया। देर रात हम लोगों को गोला गोकर्णनाथ ले जाया गया। उसमें रामसागर द्विवेदी समेत कई छात्र नेता भी शामिल थे। हम लोग जब गोला पहुंचे तो बाकी लोग अंदर गए और हम धीरे से बाहर निकल आए। वहां से लखीमपुर गए। एक बस खड़ी थी। लखीमपुर बंद था। कोई वाहन वहां चल नहीं रहे थे। कर्फ्यू चारों तरफ लगा हुआ था। वहां से हम सीतापुर आए। बस में अकेले ही बैठे थे। सीतापुर आए तो देखा.. वहां पर बसें धूं धू करके जल रही थीं। आगजनी हो रही थी। हर ट्रेन खंगाली जा रही थी। पुलिस वाले मुस्तैद खड़े थे कि कोई अयोध्या की तरफ जाने वाला यात्री ना हो। फिर पता चला की कोई ट्रेन आने वाली है... लखनऊ के लिए... जो यहां चार पांच बजे पहुंचती है... उसी ट्रेन में हम बैठे और लखनऊ पहुंचे। जब मैं लखीमपुर से लखनऊ आया तब सीतापुर रोड पर भूख लगी। दुकाने सब बंद थीं। वहीं करीब आधा किलो सिंघाड़े की गूदी ली और खा गए। लखनऊ उतर कर त्रिवेणी नगर गए जहां हमारी बहन रहती हैं। वहीं पर हमने अपने कपड़े मंगवा लिए। कपड़े बदलकर वहां से हम चारबाग पहुंच गए।


चारबाग में हमारे संगठन के सहयोगी सुरेंद्र शर्मा मिले... शर्मा भोजनालय वाले। उन्होंने एक कमरे में हमें सुलाया और बताया कि रात में एक ट्रेन सुल्तानपुर के लिए जा रही है और उसमें आप सवार हो जाइए। हम टिकट लेकर ट्रेन में सवार हो गए। ट्रेन खचाखच भरी थी। कोई यात्री एक दूसरे से बात नहीं कर रहा था और ना एक दूसरे की तरफ देख रहा था। सब अपरिचित की तरह बैठे हुए थे। ट्रेन चली और फिर सुल्तानपुर से थोड़ा पहले ही किसी जगह पर रुक गई। ट्रेन बमुश्किल आधा मिनट के लिए रुकी होगी और उतनी ही देर में पूरी ट्रेन खाली हो गई। हर बोगी से लोग उतर पड़े। चारों तरफ जय श्री राम के नारे गूंजने लगे। एक झटके में वह ट्रेन खाली हो गई। वो जंगल था। वहां से सभी लोग पैदल ही अयोध्या की तरफ बढ़ चले।



जब अयोध्या में चली गोलियां और लाल हुआ सरयू का पानी


पूरी रात चले... अगला पूरा दिन चले... शाम को जब वहां हम लोग अयोध्या पहुंचे तब तक वहां पर गोलियां चल चुकीं थीं। सैंकड़ों कारसेवक बलिदान हो चुके थे। प्रशासन सबूत मिटाने के और मीडिया कवरेज से बचने के लिए सड़कों पर धुलाई करवा रहा था। हम लोग कारसेवकपुरम् पहुंचे। वहां जो अधिकारी थे उन्होंने कहा -  भाई आप लोग भी आ गए!! उन्होंने कहा कि अब यहां से वापस जाओ। हम लोगों ने वहां पर देखा सड़कों पर दीवारों पर खून के धब्बे लगे हुए थे। पुलिस प्रशासन के लोग सब उसकी सफाई कर रहे थे। दाग धब्बे हटाए जा रहे थे। हम लोग अनुशासित कार्यकर्ता की तरह लखनऊ की तरफ वापस हो लिए। यह बात सन 1990 की है। नवंबर का महीना था। जाड़े का समय था। खैर, देर रात हम लोग लखनऊ आ गए।

अगले दिन अखबारों में छपा था.. कारसेवकों पर गोलियां चलीं... सरयू नदी में लाशें बहाई गईं... सड़क खून से लाल हो गई... अयोध्या में हालत बहुत वीभत्स थे। किसी के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। कारसेवकों को सरयू में गोली मारकर बहाया गया था। अयोध्या में चारों तरफ सन्नाटा और मौन पसरा हुआ था।

 

जब रोकी बूथ कैप्चरिंग और पीटे गए अन्ना महाराज


वर्ष 1991 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए। लखनऊ पश्चिम विधानसभा में रामकुमार शुक्ला जी बीजेपी से और अरुण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना महाराज समाजवादी पार्टी से उम्मीदवार थे। उस समय बैलेट पर वोट डाले जाते थे। वोटिंग वाले दिन सपा के लोग बूथ कैप्चरिंग कर रहे थे। कालीचरण स्कूल पर बूथ कैप्चरिंग हुई। हम मुस्लिम बहुल इलाके भोलानाथ कुंए पर खड़े थे। जहां हमने सपा को बूथ कैप्चरिंग नहीं करने दी। जब सपा के कार्यकर्ता हताश हो गए तो मुसलमानों ने हमें पकड़ा और खींच कर भोलानाथ कुंआ से जमाई टोला की तरफ ले गए। हर पर बुरी तरह से प्रहार हुए। हमारी रुद्राक्ष की माला, स्फटिक की माला टूट चुकी थी, हमारा जनेऊ मुसलमानों ने तोड़ दिया था, सिर पर प्रहार हुआ तो लहू की धार बहने लगी। हमारा सर फट गया। उस दिन हमारी हत्या ही हो जाती अगर प्रभु कृपा से हम उनसे किसी प्रकार छूट कर अपनी गली में भाग कर ना पहुंच गए होते। जब हम अपनी गली में आ गए तो मुस्लिमों के झुंड की हिम्मत जवाब दे गई वो वहां नहीं घुस पाए। जैसे ही यह बात शहर में फैली लोग रात में ही हमसे मिलने आने लगे। अखबारों में यह खबर छपी थी तो मिलने वालों का दिन भर तांता लगा रहा। जिलाधिकारी ने कालीचरण कालेज रीपोलिंग का आदेश दिया। वहां अगले दिन वोटिंग हो रही थी। लोग हमसे मिल कर कालीचरण कालेज वोट डालने जा रहे थे। उसी समय कालीचरण पर कैलाश और अन्ना दोनों पहुंच गए। आक्रोशित लोगों ने दोनों को देखते ही मारना शुरु किया। अगर उस दिन उस क्षेत्र के दो सभसदों स्वामी राम अवस्थी और रमेश कपूर बाबा अगर जमीन पर अन्ना और कैलाश के ऊपर लेट कर उन्हें ना बचाते तो उनके प्राण ना बचते। आंदोलन के नाते जनता के बीच जिस प्रकार का प्रेम और स्नेह मिला वो अविस्मरणीय है।  

 

6 दिसंबर 1992 - मिट गया कलंक का प्रतीक


सुबह का करीब 10:00 बजा होगा। बजरंगदल के कारसेवक नहा धोकर विधानसभा पहुंचे। कल्याण सिंह की सरकार थी। हम लोगों को गाड़ियां वहीं से मिली और वहां से सीधे हम अयोध्या पहुंचे। हमारे साथ अयोध्या जाने वालों में वचनेश त्रिपाठी और केजीएमयू के डॉक्टर सूर्यकांत के अलावा सैकड़ों कारसेवक थे। जब हम लोग अयोध्या पहुंचे तो बहन साध्वी ऋतंभरा जी का उद्बोधन चल रहा था। बहन साध्वी ऋताम्भरा जी बोल रहीं थी मां भारती के सपूतों मेघनाथ मारा गया है... कुंभकरण और उसके बाद रावण की बारी है। यह उद्बोधन उन तीनों ढांचों के लिए था जो राम जन्मभूमि परिसर पर मुगल आक्रांताओं ने ताने थे। साध्वी ऋतंभरा का जिस तरह से ओजपूर्ण भाषण चल रहा था उसने नौजवानों में नव ऊर्जा का संचार किया। हालात ऐसे हुए कि उस पूरे ढांचे को रस्सियां बांधकर गुंबदों पर चढ़कर हर तरफ से खींच दिया गया। कुछ ही देर में फावड़ा, कुदाल लेकर आए कारसेवकों ने ढांचो और दीवारों को तोड़ताड़ कर सब बराबर कर दिया।

 

जब टेंट में पहुंचे रामलला


शाम होते होते तीनों ढांचे गिर चुके थे। अब सवाल हुआ कि इतना मलवा कैसे हटेगा ? तभी एनाउंसमेंट हुआ। कहा गया कि जितने भी राम भक्त कारसेवा के लिए आए हैं वह इसी मलवे को अपने साथ प्रसाद के रूप में, पंजीरी स्वरूप में लेकर जाएं। इसके बाद तो जिसके पास जो भी था,,, गमछा,,,कपड़ा, कुछ नहीं तो जेब में ही सही कारसेवकों ने ईंटा, गुम्मा एक एक उठा लिया। जिसको जो मिला वह अपने साथ लेकर के चल पड़ा। मुश्किल से डेढ़ - दो घंटे के अंदर वहां पर सपाट मैदान बन गया। इसके बाद जानकीमहल ट्रस्ट में मीटिंग हुई। विचार किया गया कि अब आगे कैसे क्या हो। उधर फैजाबाद में सब बाजार बंद... चादर आवे कि क्या हो...!! कैसे रामलला को छांव दी जाए!! वहीं एक अग्रवाल साहब थे। उनसे चादर मांगा गया। कोई बांस बल्लियों के इंतजाम में लग गया। करीब चार घंटे में जन्मभूमि पर तंबू तान दिया गया और राम लाल टेंट में चले गए। टेंट में ही रामलाल की मूर्ति स्थापित कर दी गई।

 

दिल्ली में उस समय नरसिम्हा राव की सरकार थी। जानकारी दी जा रही थी कि फोर्स चल पड़ी है, मिलिट्री आ रही है, लेकिन अयोध्या में रात में 8:00 बजे तक मौके पर कोई पुलिस प्रशासन नहीं पहुंच पाया। रामलला टेंट में विराजमान हो गए। हम लोग रात 8:30 बजे वहां से चल पड़े। जय श्री राम के नारे लगाते हुए लखनऊ पहुंचे। उस समय लखनऊ में भी सड़कों पर चारों तरफ सन्नाटा था। कहां से क्या हो जाए...अनिश्चितता का माहौल। केंद्र सरकार ने एक साथ उत्तर प्रदेश समेत तीन राज्यों में बीजेपी की सरकारें बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया था।

 




...अन्यथा भारत में एक मुसलमान ना बचता


दूसरे दिन से पूरे भारत भर में दंगे प्रारंभ हो गए। शुरुआती नुकसान के बाद जब हिंदू जनमानस दंगे की प्रतिक्रिया देने को खड़ा हुआ और जवाब देना शुरू किया तो ऐसा माहौल बना कि सरकार को दखल देना पड़ा। वैसे भी हिंदू शांत स्वभाव का होता है उसकी मानसिकता तोड़फोड़ और उपद्रव, दंगा, मारकाट की तो होती नहीं हैं। जबकि दूसरा पक्ष हर समय 24 घंटे भारत में तोड़फोड़ करने , दंगा फैलाने और विध्वंस करने की मानसिकता रखता है और करता भी है।


जब हिंदुओं को लग गया कि अब हमको पलट कर मारना है तब केंद्र सरकार ने दबाव बनाना शुरू किया। हिंदूवादी नेताओं से केंद्र सरकार ने अपील करने को कहा कि पलटवार कर रहे हिंदुओं को रोका जाए। तब माताटीला में अशोक सिंघल, आचार्य गिरिराज किशोर आदि सब गिरफ्तारी में थे। उन्होंने वहां से अपील जारी की, कि, यह हमारा देश है, हमें इसको बचाना होगा, लड़ना नहीं है। इसके साथ साथ और भी कई बातें कह कर उन लोगों ने स्थिति को संभाल लिया। अगर उस समय अशोक सिंघल जी और बाकी बड़े नेताओं ने हम बजरंग दल के लोगों से अपील न की होती , हम लोगों को ना रोका होता तो आज हिंदुस्तान में मुसलमानों की जितनी आबादी है उसका 10% भी ना होता। वह समय था... महादेव की इच्छा हो.. या जो भी रहा हो... बस वह बच गए जिन्होंने हिंदुओं पर हमला किया था। इसमें तो किसी को दोराय नहीं है कि जिस दिन हिंदू यह तय कर लेगा कि हमको अब यही काम करना है तो फिर इनका कुछ नहीं बचेगा।


यह तो इतिहास है कि मुसलमान सिर्फ धोखे से मार सकता है, सोते हुए व्यक्ति को मार देगा, झुंड में जाकर घेर कर मार देगा लेकिन चुनौती देकर के मारना इनके बूते के बाहर की बात है। आप इतिहास देख लीजिए कहीं पर भी दुनिया में इन्होंने चुनौती देकर आक्रमण नहीं किया है। इन्होंने हमेशा धोखे से, छल से, कपट से ही हासिल किया है। जैसे ही हम सचेत हो गए कि अब इनको निपटाना है तो फिर हम थोड़ी देखेंगे कि इनका क्या होना है या उनके साथ क्या हो रहा है। हम लोग महाकाल के भक्त हैं। भगवान परशुराम के वंशज हैं। यही हम लोगों का इतिहास रहा है। इस तरह से हम लोग 600 साल के कलंक को एक झटके में न सिर्फ मिट्टी में मिलकर आ गए बल्कि वह मिट्टी भी हटा दी जो कलंक की कथा कह रही थी।


कारसेवा का अर्थ -


अनूप अवस्थी कहते हैं कि कारसेवा का मतलब कर से सेवा। कर का मतलब हाथ। अपने हाथ से राममंदिर आंदोलन के लिए जो बन पड़े वह करिए, वह करना है.. और उसी का शुद्ध नाम दिया गया कारसेवा। आंदोलन के समय कोई रामभक्त कारसेवकों के लिए पूड़ी बना रहा है, कोई सब्जी बना रहा है, कोई उसे इकट्ठा कर रहा है तो कोई अयोध्या जाने वाले कारसेवकों तक उसे पहुंचा रहा है। यह सब कारसेवा ही है। जिसकी जो सामर्थ्य है वह उसे उस तरह से कर रहा है। कोई रास्ते में भंडारा लगाए है, कोई कपड़ा दे रहा है झंडे के लिए, कोई अर्थ दे रहा है आंदोलन के लिए... जो अपने हाथ से जो कर सकता है वही है कारसेवा। जब कारसेवा का आह्वाहन हुआ तो उसमें हर व्यक्ति ने अपने स्तर से योगदान दिया। वह ऐसा समय था जब दुनिया भर से राम मंदिर आंदोलन में लोग आ रहे थे। उनको लखनऊ से होकर गुजरना था। इतने लोगों के भोजन पानी की व्यवस्था कहां से होती... तो घर-घर में खाने के पैकेट बने। घर-घर में राम मंदिर आंदोलन के लिए अलख जगी। आंदोलन के दौरान जाड़े के दिन थे। दक्षिण भारत से आ रहे कारसेवकों को उत्तर भारत में आने पर ठंड का सामना करना पड़ता था। ऐसे में गर्म कपड़े, कंबल आदि वितरित कर खूब सेवा की गई। जो कारसेवक आ रहे थे उनके वापस जाने का कार्यक्रम भी निश्चित नहीं होता था। दो दिन लगें- चार दिन लगें लेकिन वो ऐसा दौर था जब पूरा देश एक ही परिवार और सभी घर एक ही घर बन गए। ये रचना स्थानीय निवासियों ने ही तैयार की थी। 


आज अयोध्या में भव्य राममंदिर बन कर तैयार है इससे बड़ी जीवन की उपलब्धि नहीं हो सकती।

 

टीम स्टेट टुडे



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