कौवा कान ले गया
आजादी के अमृत काल का सबसे बड़ा विषदंश यही है कि राजनीतिक दल, राजनीतिज्ञ, संवैधानिक संस्थाएं और संस्थाओं में पदासीन व्यक्तियों ने कभी अपने अधिकारों को विस्तार से ना जाना समझा और ना ही जानने समझने की कोशिश की।
बड़ी पुरानी कहावत है – नाच ना आवे आंगन टेढ़ा। भारतीय संविधान बनाते समय निर्माताओं ने देश की हर छोटी-बड़ी व्यवस्था और आवश्यकता का ख्याल रखा।
भारत में हर स्तर पर एक सिंडिकेट है जिसने मतलब भर का ज्ञान अर्जन कर अपने अपने डिपार्टमेंट को चलाने का ठेका उठा रखा है। यह सिंडिकेट भारतीय विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही जगह है।
सबसे ताजा उदाहरण चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के बीच मतदान प्रतिशत को लेकर चले युद्ध का है जिसमें राजनीतिक दलों की राजनीति का पर्याप्त मसाला मौजूद है।
लोकतंत्र का उत्सव और सुप्रीम आचरण पर सवाल
जिस दिन फार्म 17 सी का विवाद उठा क्या उससे पहले यह प्रावधान राजनीतिक दलों को नहीं पता था या चुनाव आयोग ने कुछ अजूबा कर दिया या फिर सुप्रीम कोर्ट ग्राउंट रिएलिटी से इस कदर कट चुका है कि उसे ग्राउंड वर्किंग का अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो रहा है। नतीजे में याचिका पाकर सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक संस्था को ही गरिया रहा है। चुनाव आयोग पर सवाल उठते ही थके-हारे, छोटे-बड़े, शातिर और सज्जन सभी राजनीतिक दलों ने भारतीय लोकतंत्र के उत्सव को कठघरे में खड़ा करना शुरु कर दिया।
देश की बड़ी आबादी चुनावी राजनीति में पहले से उदासीन है जिसका परिणाम है कि लाख कोशिशों के बावजूद शत-प्रतिशत मतदान नहीं हो पाता।
रही सही कसर सुप्रीम कोर्ट ने अपने निखद्द आचरण से पूरी कर दी। मामले में सुप्रीम कोर्ट का आचरण इस प्रकार का है जिससे भारतीय जनमानस में पूरी चुनावी प्रक्रिया के प्रति घोर अविश्वास पनप जाए। कहा तो यह भी जा सकता है कि एक याचिका पाकर सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया के खिलाफ नैरेटिव सेट कर रहा है। सवाल यह भी है कि नैरेटिव किसके इशारे पर सेट किया जा रहा है। ये भी जानना जरुरी है कि देश की वर्तमान चुनी हुई सरकार और चुने हुए प्रधानमंत्री की अगुवाई में संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त किए जाने का शिगूफा किसी सच्चाई से बड़ा कैसे हो गया।
दलों के दलदल में बेचैनी
किसी भी राजनीतिक दल को हक है कि वो चुनावी प्रचार में अपनी जीत के आंकड़े का लक्ष्य देश की जनता के सामने रखे। 2014 में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार का लक्ष्य रखा और हासिल किया। 2019 में बीजेपी ने तीन सौ पार का लक्ष्य रखा और हासिल किया। 2024 के लिए बीजेपी ने चार सौ पार का लक्ष्य रखा और हासिल करने के लिए प्रयास कर रही है। सवाल है कि बाकी दलों ने देश की जनता के सामने ऐसा कोई लक्ष्य क्यों नहीं रखा। क्या उन्हें किसी ने रोका है। बाकी दलों ने देश के सामने मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य रखा है और वो भी अपनी तरह से प्रयास कर रहे हैं।
परंतु, इस पूरी प्रक्रिया में अगर किसी भी तरह से देश की संवैधानिक संस्थाओं को ही कठघरे में खड़ा किया जाए और उस पर सुप्रीम कोर्ट का आचरण ऐसा हो जिसमें चुनावी प्रक्रिया को ही धांधली के दलदल में डूबा हुआ दिखाकर देश की जनता के सामने परोस दिया जाए तो यह उचित नहीं।
सुप्रीम कोर्ट को पहला न्याय खुद से करना चाहिए। लंबित मुकदमें देश में अपराध, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का पर्याप्त मौका भी बनाते हैं। लंबित मुकदमों को लेकर सुप्रीम कोर्ट देश की विभिन्न अदालतों के साथ-साथ खुद पर मुकदमा क्यों नहीं चलाता। देश का हर महत्वपूर्ण मामला केवल कुछ वकीलों के पास ही क्यों जाता है। बहुतायत में वकील डिग्री लेकर दो वक्त की रोटी तक का जुगाड़ नहीं कर पाते। ऐसा क्यों है। जाहिर है ये न्यायिक सिंडिकेट है।
इलेक्ट्रोरल बॉंड का मसला हो या देश की जनता को वैक्सीन लगाने का। सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचते ही बड़ा सा बुलबुला देश के सामने पैदा होता है और फिर टांय-टांय फिस्स। ये क्या है। नतीजा कहां है। मामले का फैसला कहां है।
हकीकत यह है कि इल्क्टोरल बॉंड के हमाम में तमाम छोटे बड़े दलों के कपड़े उतर गए और पूरे देश की जनता को एक नहीं दो - दो बार बिना किसी हाय-हाय के कोरोना की वैक्सीन लगी। हायतौबा वैक्सीन ना लगवाने को लेकर मची जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने नागरिक कर्तव्य से मुंह मोड़ा। अब चुनाव के समय किसी ने सुर्रा छोड़ दिया कि कोरोना की वैक्सीन के साइड इफेक्ट हैं। सवा सौ करोड़ से बड़ी आबादी वाले देश के लिए ऐसी हवाबाजी भी जानलेवा है। कुछ लोगों के दिल इतने कमजोर हैं कि ऐसी चर्चा से ही हार्टफेल हो जाए।
अब आइये चुनाव आयोग से सुप्रीम कोर्ट द्वारा वोटिंग प्रतिशत पर मांगे जा रहे सवाल पर -
हाईस्कूल-इंटर की परीक्षा में जब तीन घंटे पूरे होने पर कापियां जमा की जाती हैं तो कक्ष निरीक्षक को अपनी शीट भरने में कुछ समय लगता हैं। फिर विद्यालय निरिक्षक को सारे कक्ष निरिक्षकों की शीट का मिलान करने में थोड़ा और समय लगता है। सभी जिलों से आंकड़े एकत्रित करते हुए बोर्ड को फाइनल आंकड़ा निकालने में थोड़ा और समय लगता है। यह प्रक्रिया है इसमें समय लगेगा ही।
सवाल तो इस बात का है कि सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका से पहले देश के विभिन्न राजनीतिक दलों को फार्म 17 के बारे में क्यों नहीं पता था। अगर पता था तो अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया। सामान्य रुप में किसी एक निर्वाचन क्षेत्र में दो हजार से बाइस सौ मतदान केंद्र हो सकते हैं। जिस पर अपने एंजेंट बैठाने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को करीब छ हजार कार्यकर्ताओं की जरुरत होगी। ये लोग कहां से आएंगें।
चुनावी प्रक्रिया का हर अंश जिसकी बात का बतंगड़ बीच चुनाव बन रहा है या बनाया जा रहा है हमेशा से मौजूद है। जिसका जब जिधर ध्यान जाता है वो कौवा कान लेकर उड़ लेता है। चुनाव आयोग वोटिंग प्रतिशत का आकंड़ा देने में कोताही नहीं कर रहा और ना ही उसकी नीयत पर सवाल उठाना सही है क्योंकि निर्धारित समय में करीब सौ करोड़ मतदाताओं की कतार लगवा कर, एक एक पोलिंग बूथ का आंकड़ा जुटा कर, दो-तीन महीने के भीतर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अगले पांच साल के लिए चिरंजीव कर देना आसान नहीं।
अगर देश की जनता चुनावी प्रक्रिया को वाकई उत्सव माने तो भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में इस काम को सहजता से किया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक दलों को सिर्फ अपने हिस्से के वोट गिरने से मतलब है, जनता को अपनी ही चुनी सरकार की आलोचना से मतलब है, चुनावी प्रक्रिया में लगे सरकारी तंत्र को अपनी ड्यूटी कटवाने से मतलब है और इस सबके ऊपर सुप्रीम कोर्ट को न्याय करना है।
कोई पूछे जरा सरकार, विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट से क्या हुआ उस एसआईटी का जो कालेधन को वापस लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2014 में नरेंद्र मोदी ने सरकार बनते ही बनाई थी। उसका नतीजा कहां है।
राजा का भय है डोलता सिंहासन
अनुभव कह रहा है कि वर्तमान में देश का प्रधानमंत्री एक ऐसा शख्स है जिसके सामने अगर वास्तविक चुनौती रखी जाए तो उसका विमर्श समस्या के समाधान की ओर ही होगा। अंतिम समाधान ही शाश्वत होगा यह जरुरी नहीं लेकिन परिस्थिति पहले से बेहतर होगी। चुनाव आयोग में यह साहस होना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के किसी भाषण पर अगर आपत्ति लगे तो उन्हें नोटिस भेज सके। नोटिस का जवाब मोदी देंगें, ऐसा देश के नागरिक को प्रधानमंत्री पर भरोसा है। लेकिन वो मोदी हैं इसलिए आयोग उन्हें नोटिस ही ना भेजे तो आयोग गलत है मोदी नहीं।
रही बात छल-प्रपंच और साम-दाम-दंड-भेद की तो राजा का सिंघासन हमेशा खतरे में रहता है क्योंकि सिर्फ वही है जिसके पास खोने के लिए सबकुछ है और पाने के लिए सिर्फ जनता का भरोसा जो भारत में मतदान के दिन ईवीएम में कैद हो जाता है।
सत्ता को हासिल करना और हासिल हुई सत्ता को बचाना राजा का कर्म और धर्म है। यहीं राजनीति गर्भधारण करती है।
क्या है फॉर्म 17सी, जिसके डेटा को प्रकाशित करने की मांग कर रहा विपक्ष, क्या है पूरा मामला
हर बूथ पर पीठासीन अधिकारी को फॉर्म 17सी आनलाइन भरना होता है
वोटिंग खत्म होने के बाद ये संबंधित सारे आंकड़ों की जानकारी देता है
17सी फॉर्म ही नहीं बल्कि 17ए फॉर्म को भी बूथ स्तर पर आनलाइन पर भरा जाता है
चलिए पहले तो ये जानते हैं कि फॉर्म 17 सी होता क्या है
हर पोलिंग बूथ पर प्रिसाइडिंग अफसर को एक फॉर्म दिया जाता है, जिसे उसे आनलाइन ही भरना होता है। ये काम वोटिंग की प्रक्रिया खत्म होने के तुरंत बाद ही करना होता है।
ऐसा होता है फॉर्म 17सी
इसमें कई चीजें भरनी होती हैं, जिससे ये साफ हो जाता है कि कितने लोगों ने वोटिंग की, कितने वोट करने नहीं आए और कितने लोगों को वोट देने के काबिल नहीं समझा गया. ये भी भरना होता है कि वोटिंग के दौरान कितनी ईवीएम का इस्तेमाल किया गया। कंट्रोल यूनिट और बैलेट यूनिट की संख्या और नंबर देने होते हैं।
फॉर्म 17 सी के कुछ सवाल आपके सामने पेश हैं, जिससे पता लग जाता है कि ये फॉर्म ऐसा होता है, जिससे पोलिंग सेंटर पर वोट गतिविधि की हर बात आ जाती है, जिसके बाद इस बात की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती कि वोटों के प्रतिशत के आंकड़ों में कोई गड़बड़ी हो पाए।
पोलिंग स्टेशन का नाम और नंबर
प्रयोग ईवीएम का पहचान क्रमांक
कंट्रोल यूनिट क्रमांक –
बैलेट यूनिट क्रमांक –
कितने लोग वोट करने आए
रुल 17ए के अनुसार वोटों की संख्या कितनी दर्ज की गई
कितने लोगों को अनुमति नहीं दी (नियम 49 एम के अनुसार)
ईवीएम को रिकॉर्ड के दौरान जब टेस्टिंग की गई तो कितने वोट डाले गए
किन उम्मीदवारों के लिए वोट टेस्ट किए गए.
इस फॉर्म में बैलेट पत्र जिसको दिए गए वो भी दर्ज करना होता है
जितने बैलेट पेपर बचे वो भी दर्ज किया जाता है
मुख्य तौर पर फॉर्म 17 सी में यही बातें दर्ज होती हैं. ये ऐसा फॉर्म होता है, जिसे अगर आनलाइन पब्लिश कर दिया जाए तो हर आंकड़ा सामने होगा, लेकिन देशभर में जितने बूथ हैं, उन सभी के डाटा अलग अलग पब्लिश करना बहुत मुश्किल जरूर है.
फॉर्म 17सी और फॉर्म 17ए क्यों जरूरी है
1961 के नियमों के अनुसार, चुनाव आयोग को दो फॉर्म बनाकर रखने होते हैं, इन्हें वोटिंग खत्म होते ही भरना होता है, जिसमें मतदाताओं की संख्या और डाले गए वोटों का डेटा होता है – फॉर्म 17ए और 17सी. अगर आप वोट डालने गए हों तो रजिस्टर में वोट देने के पहले आपका ब्योरा भी लगातार दर्ज होता रहता है. नियम 49एस(2) के तहत, पीठासीन अधिकारी को मतदान समाप्त होने पर उम्मीदवारों के मतदान एजेंटों को फॉर्म 17सी में भरे फॉर्म की कॉपी देनी होती है.
फॉर्म 17सी में डेटा का उपयोग उम्मीदवारों द्वारा ईवीएम गणना के साथ मिलान करके मतगणना के दिन परिणामों को सत्यापित करने के लिए किया जाता है. इसके बाद, किसी भी विसंगति के मामले में संबंधित मामलों में उच्च न्यायालय में चुनाव याचिका भी दायर की जा सकती है.
एक निर्वाचन क्षेत्र में कितने बूथ होते हैं क्यों हर बूथ पर एजेंट के लिए फॉर्म 17सी लेना मुश्किल
एक निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 2,000-2,200 बूथ होते हैं. इतने बूथ पर एक उम्मीदवार के एजेंट होने संभव नहीं. फॉर्म 17C की एक प्रति प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए एक उम्मीदवार को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 6,000 पोलिंग एजेंट रखने की जरूरत होती है. छोटे दलों और कई निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए सभी बूथों पर पोलिंग एजेंट रखना असंभव है.
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