ओम प्रकाश मिश्र
’राष्ट्र‘ की संकल्पना, देश, राज्य या ’नेशन स्टेट’ की संकल्पनाओं से भिन्न है। ’राष्ट्र’ केवल भूमि से नहीं बनता, ’राष्ट्र’ केवल लोगों से ही नहीं बनता, ’राष्ट्र’ का मूल कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्वों से ही बनता है। ’राष्ट्र’ की जमीन कभी छिन भी जाये तो वापस आ सकती है, सबसे उपयुक्त उदाहरण इजरायल का है, सैकड़ों वर्षो के बाद, इजरायल सम्मान के साथ, सीना तान कर खड़ा हुआ, यह राष्ट्र के मूल तत्व की धारणा को सिद्ध करता है। धन-सम्पत्ति व साधन लुट भी जायें, विध्वंस भी हो जाये तो भी राष्ट्र पुनः उठकर खड़ा हो सकता है। जर्मनी व जापान के उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं विध्वंस के बाद भी वे समृद्ध व साधन सम्पन्न बन सके। उनकी शक्ति का केन्द्र व गुरूत्व राष्ट्र का मूल तत्व ही था।
राष्ट्र एक दिन में नहीं बनता। ’राष्ट्र’ का निर्माण एक लम्बी प्रक्रिया से शनैः शनैः होता है। युद्धों, राजनीति, तलवार, तोप, सेनाओं, सन्धियों, समझौतों, कूटनीतियों, व्यापारों आदि से ’राष्ट्र’ नहीं बनते हैं, बहुत धन सम्पदाओं के खजाने से भी राष्ट्र नहीं बनते। इन उपादानों से राज्य बन सकते हैं, रियासतें बनाई जा सकती हैं, शासन स्थापित हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र इनसे नहीं बनता।
फिर राष्ट्र का मूल तत्व या गुरूत्व शक्ति क्या होती, जिनसे राष्ट्र बनता है। राष्ट्र समग्रता का स्वरूप है, संस्कृति इसका प्राणतत्व है। संस्कृति का सम्बन्ध, व्यक्ति, समाज, संगठनों, संस्थाओं, कालखण्डों, महापुरूषों, चिन्तकों, विचारकों, आध्यात्मिक चेतना, आदि से होता है। राष्ट्र का जन्म एक सतत् प्रक्रिया से होता है। सृष्टि की रचना ही इसका निर्धारण करती हंै। राष्ट्रों का जन्म, सृजन, अम्युदय, पुनरूत्थान आदि प्रक्रियात्मक स्वरूप में होता हंै।
यदि हम अपने राष्ट्र के विषय में देखें तो हम इतिहास के पन्ने पलटते जायेंगे, तो हमें पता लगता हैं कि इतिहास के पन्ने समाप्त हो जायेंगे तभी भी हमें मिलेगा कि हम एक राष्ट्र थे। राष्ट्र कोई नवीन विचार या संकल्पना नहीं है।
संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ ’ऋग्वेद’ में ’राष्ट्र’ शब्द का उल्लेख अनेकों बार मिलता हैं। ’ऋग्वेद’ के मण्डल 10, सूक्त 173/2 में आता हैः- “इह राष्ट्रमुधारय” राष्ट्र का मुख्य गुरू या पुरोहित, राजा को अभिशक्त करने के उपरान्त उपदेश व आदेश देता है। भारत राष्ट्र का संकल्पना, वेदों के समान ही प्राचीन है।
’विष्णु पुराण’ में भारत राष्ट्र के विषय में उल्लेख हैः-
“गायन्ति देवाः किलगीत कानि धन्यास्तु ते भारत भूमि मागे।
स्वर्गापवर्गास्पद हेतु भूते भवन्ति भूयः पुरूषाः सुरत्वात्”।।
’विष्णु पुराण’ः 2-3-24 ब्रहमपुराण (19-25)
अर्थात् देवगण इस प्रकार गीत गाते हंै हम देवताओं से भी, वे लोग धन्य है, जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिए साधनभूत भारत भूमि में उत्पन्न हुये हैं।
’भारत’ सिर्फ एक भूभाग या राजनीतिक सीमाओं से बंधा हुआ राष्ट्र नहीं है। भारत ’राष्ट्र’ एक विचार हैं, संस्कृति है, दर्शन है। भारत भूमि के ऋषियों ने इस विचार को पल्लवित किया। वेदव्यास से लेकर स्वामी विवेकानन्द, इसके उत्तराधिकारी हैं। याज्ञवल्वय, मैत्रेयी, गार्गी, घोषा, अपाला, लोवामुद्रा, नचिकेता, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, कबीर, नानक, तुलसीदास, महात्मागांधी, डाॅक्टर अम्बेडकर, दीनदयाल उपाध्याय आदि अनेक महामनीषियों का इस सरणि में योगदान है। हमारा चिन्तन जड़ नहीं रहा, सदैव नये विचार, नये वैचारिक आविष्कारों को आत्मसात करता रहा है। हम मानव की एकात्मकता में विश्वास करते है। “वसुधैव कुटुम्बकम” का विचार भारत राष्ट्र में ही जन्म लेता है।
भारत राष्ट्र एक-संस्कृति, एक राष्ट्र, अनेक पंथ, फिर भी परिवार एक का सूत्र लेकर विकासमान हुआ है। यहाँ प्रतियोगिता नहीं वरन् समन्वय-सहयोग एवं सहकार का वैचारिक आधार रहा है।
प्रकृति के हाथों बना भारत राष्ट्र संभवतः नही,ं वरन् निश्चिततः सर्वोत्तम राष्ट्र है। “उत्तरं यत् समुद्रश्च हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्”
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः।।
“विष्णु पुराण” (2.3.1)
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में, जो राष्ट्र है वह भारत है। उसकी संतानों को भारती कहा जाता है। “इस विशाल परन्तु एक इकाई देश को राष्ट्र के अतिरिक्त किसी महाद्वीप या उपमहाद्वीप की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। उपमहाद्वीप में अनेक देश हो सकते हैं।, उसकी विशालता और विभिन्नता एक इकाई के साधे नहीं सध सकती। अनेक अंग अपनी-अपनी पहचान बनाये देश के रूप में उग आते हैं। भारत में प्रान्तों के नाम पर अलग-अलग क्षेत्र नहीं, भारत के अंग विद्यमान है। कोई भी क्षेत्र हो और कितना भी दूर हो, है वह भारत ही और भारत राजनीतिक व्यवस्था के कारण नहीं प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था और योजना के हाथों से है।
-(दीनदयाल उपाध्याय, “राष्ट्र जीवन की दिशा”) पृष्ठ 90-91
भारत राष्ट्र, धरती की कोख से समग्र की साधना हेतु उत्पन्न, उसी की गोद में विकासमान हुआ और उसकी संतानों की अनुभूतियों से स्पष्टतः सहज ही विकसित हुआ है। यह व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र, और विश्व फिर समस्त ब्रहमाण्ड को एक ही स्पन्दन में साधता है। राष्ट्र इस विकास-प्रक्रिया मेें श्रेष्ठतम इकाई है। यही भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि सभी पक्षों की समग्र सोच के साथ पूर्णता को प्राप्त करता है। इसमें मानव कल्याण राष्ट्रहित व समस्त ब्रहमाण्ड के लिए मंगलमय होता है।
ध्यान देने की बात यह है कि राष्ट्र और राष्ट्र जीवन का निर्माण खण्ड-खण्ड में नहीं होता। भवन बनाने के लिए ईटं, पत्थर, चूना आदि आदि, यदि ढ़ेर बनाकर रख दें, तो भवन नहीं बनेगा। जब भवन निर्माण का विचार मन में हैं तो-
भवन निर्माण की सामग्री एकत्र करके, योजना बनाकर, क्रमबद्ध-लयबद्ध-प्रयास द्वारा, एक उपयोगी, सुखकारक, परिवारजनों की सुऱक्षा में सक्षम गृह का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, राष्ट्र व राष्ट्रजीवन का निर्माण, सभी अवयवों-उपादानों के श्रेष्ठ उपयोग से ही संभव है।
किसी भी देश का लक्ष्य वैभवशाली होना होता हैं, प्ररन्तु राष्ट्र के पूर्ण वैभव अथवा परमवैभव को प्राप्त करना, मात्र भौतिक सम्पन्न्ता ही नहीं हो सकता है। निश्चिततः राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तो होनी ही चाहिए।
भारत राष्ट्र कभी भी केवल भौतिक सम्पदा के पीछे नहीं दौड़ता रहा। जब हम अपने भारत राष्ट्र की महानता व वैभव का विचार करते है तो हम उनकी सम्पत्ति, समृद्धि व भौतिक आवश्यकताओं को संतुष्टि प्राप्त करने के सब प्रयत्नों पर ही विचार नहीं करते, वरन् भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उच्च नैतिक, आध्यत्मिक लक्ष्य को भी भूल नहीं सकते हैं। वस्तुतः भौतिक सुविधाओं व मानव के सर्वहितकारी सुख में तो भिन्नता रहेगी ही।
वस्तुतः एक भ्रमपूर्ण अवधारणा है हमारे मनीषियों की दृष्टि धर्म व अध्यात्म प्रधान, थी, इसलिए हमारा चिन्तन भौतिक समस्याओं और आर्थिक उन्नति की अनदेखी करता है। वस्तुतः भारतीय चिन्तन परम्परा में भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य तादात्म्य है। हमारे यहाँ अनियंत्रित प्रतियोगिता व लाभ की वृत्ति को उचित नहीं माना जाता है। पाश्चात्य जीवन-दृष्टि में मात्र भौतिकवाद पर ही जोर हैं। हमारे यहाँ राष्ट्रहित, मानव कल्याण एवं समस्त-जगत के कल्याण का लक्ष्य रहता है।
भारतीय जीवन पद्धति में असीमित उपभोग को श्रेष्ठ नहीं माना गया है। हमारे यहाँ संतुलित एवं आवश्यक उपभोग की मान्यता है।
“ईशा वास्य मिदं सर्व यक्तिंच जगत्यां जगत्।
तेन तत्येन भुंजीया मा गृधः कस्य स्विद धनम्।।”
(ईशावास्योपनिषद का प्रथम श्लोक)
अर्थात् अखिलं ब्रहमाण्ड में जो कुछ भी है, (चेतन स्वरूप जगत्), यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है, उस ईश्वर को साथ रखते हुये त्यागपूर्वक (इसे) भोगते रहो, इसमें आसक्त मत रहो, (क्योंकि) धन-भोग्य पदार्थ किसका है यानी किसी का नहीं है।
भारतीय आर्थिक चिन्तन सरणि पूर्ण वैभव यानी परम वैभव को दीनदयाल उपाध्याय जी की चिन्तन धारा में स्पष्टतः परिलक्षित होती है।
“समाज से अर्थ के प्रभाव एवं अभाव दोनों को मिटाकर उसकी समुचित व्यवस्था करने को ’अर्थायाम’ कहा गया है। आवश्यक है कि समाज के मानदंड ऐसे बनाये जायें कि हर वस्तु पैंसे से न खरीदी जा सके। देश के लिए लड़ने वाला सैनिक, अपने जीवन की बाजी, अर्थ की कामना से नहीं लगाता। अर्थ का लालच उसे देशद्रोह सिखा सकता है, देश भक्ति नही‘‘ं।
(‘‘भारतीय अर्थ नीति: विकास की एक दिशा‘‘, पृष्ठ-19)
(दीन दयाल उपाध्याय)
भारतीय आर्धिक चिन्तन, राष्ट्रहित को केन्द्र में रखकर विकसित हुआ था। यह समाज व व्यक्ति को खण्ड-खण्ड में बाँट कर नहीं देखता। यह वस्तुतः राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक सभी पहलुओं को अंगीकृत करके, यह चिन्तन धारा विकसित हुई है। इसमें राष्ट्रीय-सुरक्षा, पूर्ण रोजगार, न्यूनतम उपभोग की गारण्टी तथा विक्रेन्द्रीकृत अर्थव्यवसथा इसकी प्राथमिकतायें हैं।
भारतीय आर्थिक चिन्तन परम्परा में, जीवन में अधिकतम संतुष्टि के लिए, व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को सरल व व्यावहारिक न्यूनतम स्तर पर लाना चाहिए। असीमित इच्छाओं तथा भौतिक सम्पत्ति में वृद्धि के लिए, पागलों जैसी भाग दौड़ का परिणाम अनेकों समस्याओं के रूप में दिखाई देता है। संसाधनों के अत्यधिक दोहन, गलाकाट प्रतियोगिता, सामाजिक, तनाव व हिंसा, पर्यावरण असंतुलन, प्रदूषण व मानवीय दृष्टिकोण का पतन, भौतिकवाद के अन्धानुकरण का परिणाम हो रहा है।
भारतीय आर्थिक चिन्तन में वैभव का परिपूर्ण रूप, ’परम वैभव’ के दर्शन करता हैं, जहाँ “साध्य-साधन-विवेक” अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अनैतिक, शोषण द्वारा प्राप्त समृद्धि न तो व्यष्टि-स्तर पर उचित है, और न ही समष्टि के स्तर पर। यह पुरातन पंथ नहीं है, वरन् हमारे बहुमूल्य जीवनमूल्य हैं। यही हमारी वैभव व परम वैभव की कसौटी है।
भारत राष्ट्र का उद्देश्य, राष्ट्र को परम-वैभव पर ले जाना है। परमवैभव की संकल्पना में सब कुछ हंै। वैभव अधूरा नहंीं होता। शरीर से दुर्बल और बुद्धि प्रखर हो या शरीर सुदृढ़ एवं अल्प बुद्धि हो उसे श्रेयस्कर नहीं माना जाता। शरीर, मन, वृद्धि, सब ठीक होने पर ही व्यक्ति ठीक कहा जाता है। वैभव की संकल्पना एकांगी हो ही नहीं सकती। राष्ट्र के जीवन की संकल्पना में शक्ति-बल-शौर्य-पराक्रम के साथ-साथ, आर्थिक समृद्धि, राष्ट्रीय-सामाजिक एवम, सभी कुछ चाहिए।
राष्ट्र जीवन के वैभव में सब कुछ होता है। इसका अर्थ कबाड़ी की दुकान की तरह, अच्छा-बुरा सब कुछ होना नहीं है। परम वैभव में सर्वांगीण विकास होना चाहिए। भारत राष्ट्र की दृष्टि सर्वांगीण है। शरीर में बल-शक्ति चाहिए तो आवश्यक पौष्टिक आहार मिलना ही चाहिए। अस्वस्थता का इलाज हो, इसका भी प्रबन्ध होना चाहिए। बालकों की उपयुक्त संस्कारी शिक्षा होनी चााहिए। स्वस्थ मनोरंजन होना ही चाहिए। आवास, परिवहन, संचार व जीवनपयोगी सभी उपादानों की परमवैभव की संकल्पना में महती आवश्यकता होगी।
भारत की परमवैभव के लिए, केवल व्यक्ति की उन्नति नहीं, वरन् राष्ट्र के उत्कर्ष की संकल्पना प्राथमिक है। जब हम चावल पकाते हैं, तो एक-एक चातल पक जाता है। इसी प्रकार राष्ट्र का सुखी होना, व्यक्ति-व्यक्ति का सुखी होना है। हमारी दृष्टि में राष्ट्र के एक अंग का वैभव नहीं वरन् समस्त अंगों व अवयवों का वैभव है।
मानव समाज की एकात्मकता में अगाध विश्वास के कारण ही ’‘वसुधैव कुटुम्बकम‘’ का विचार भारत राष्ट्र, का मूल विचार है। भारत राष्ट्र समन्वय-सहअस्तित्व, सहिष्णुता का राष्ट्र है।
हमें वैभव सम्पन्नता के साथ-साथ सामाजिक-समता का भाव भी केन्द्र में रखना होगा। राष्ट्रीय स्वाभिमाान, का भाव भी, राष्ट्र के परमवैभव का एक परम आवश्यक तत्व है।
राष्ट्रों का वैभव, अल्पकालिक या घटना परक नहीं होता। यह सतत विकासमान होता है। हम भारत राष्ट्र की परमवैभव इसी यात्रा में संलग्न हैं।
लेखक -
ओम प्रकाश मिश्र
पूर्व प्राध्यापक, अर्थ शास्त्र विभाग
(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं।)
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