भारत में इतिहास पर बहसें चलती हैं। यूरोपीय विद्वान भारत पर इतिहास की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। मैक्समूलर ने लिखा, “हिन्दू दार्शनिकों की एक जाति थी। उनका संघर्ष विचारों का संघर्ष था। उनका अतीत सृष्टि की समस्या थी, उनका भविष्य अस्तित्व का प्रश्न था ...... यह कहना सही है कि विश्व के राजनैतिक इतिहास में भारत का कोई स्थान नहीं है।”1 मैक्समूलर को वैदिक और पौराणिक सहित तमाम प्राचीन इतिहास में राज्यव्यवस्था नहीं दिखाई पड़ती। एलफिन्सटन को सिकंदर के हमले के पूर्व किसी भी घटना का निश्चित समय नहीं दिखाई पड़ता। उन्होंने 1839 में लिखा, “भारतीय इतिहास में सिकंदर के आक्रमण के पूर्व किसी सार्वजनिक घटना की तिथि निश्चित नहीं की जा सकती है।” विटरनिट्ज यहां काव्य, नायकत्व और इतिहास का घालमेल देखते हैं। अलबेरूनी के आरोप ज्यादा सख्त है कि “हिन्दू चीजों (घटनाओं) के ऐतिहासिक क्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते। वे अपने सम्राटों के काल क्रमानुसार उत्तराधिकार के वर्णन में लापरवाह है।”
गांधी जी को यह सब बुरा लगा था। राष्ट्रबोध की वास्तविक शर्त सच्चा इतिहास बोध है। भारत ने यथार्थवादी चिन्तन और दर्शन में समूचे विश्व को पीछे छोड़ा था। गणित, ज्योतिष, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियां विश्वख्यात थीं। भारत ने इतिहास संकलन की अपनी विशेष परम्परा विकसित की थी। गांधी जी राजाओं के विवरण को सच्चा इतिहास नहीं मानते थे। उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा “इतिहास जिस अंग्रेजी शब्द (हिस्ट्री) का तरजुमा है और जिस शब्द का अर्थ बादशाहों या राजाओं की तवारीख होता है ........ हिस्ट्री में दुनिया के कोलाहल की ही कहानी मिलेगी। राजा लोग कैसे खेलते थे? कैसे खून करते थे? कैसे वैर करते थे, यह सब हिस्ट्री में मिलता है।”
इतिहास और वर्तमान का सम्बंध अविच्छिन्न है। इतिहास में मनुष्य के कर्म अनुभव होते हैं। भूलें चूकें और जय पराजय होती हैं। मनुष्य उनसे सीखता है। इतिहास मनुष्य जीवन की प्रयोगशाला है। समाज इसी प्रयोगशाला के निष्कर्षो के अनुुसार सही, गलत, करणीय या अकरणीय और अनुकरणीय कार्यो विचारों की सूची बनाता हैं। इसलिए इतिहास संकलन का काम वैज्ञानिक जैसा है। विज्ञान प्रकृति का विश्लेषण करता है, उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं होते। विज्ञान द्वारा जाना गया कोई भी तथ्य सम्पूर्ण या अंतिम सत्य नहीं होता। इतिहास ‘हो चुके’ का तथ्यात्मक विवरण है।
गांधी जी इतिहास निर्माता थे लेकिन स्वयं एक अच्छे इतिहास लेखक भी थे। विद्वानों ने गांधी जी की लिखी “दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास” पुस्तक की प्रशंसा की है। इस किताब का पहला अध्याय है ‘भूगोल’। भू क्षेत्र का रूप स्वरूप स्थायी नहीं रहता। इतिहास के सम्यक् अध्ययन में भूगोल की महत्ता है। वैदिक कवि भी अपने परिवेश, नदियों, पर्वतों का दिल खोल कर वर्णन करते थे। साथ में तत्कालीन अर्थव्यवस्था का काव्य बिम्ब भी खींचते थे। गांधी जी ने भी दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन अर्थतंत्र का वर्णन किया - दक्षिण अफ्रीका के गाय और बैल हिन्दुस्तान के गाय बैलों से से अधिक बड़े और मजबूत होते हैं।”3 दक्षिण अफ्रीका में अंगूर हैं, अन्य मीठे फल हैं आम भी हैं। लेकिन गांधी जी के अनुसार आमों की गुठलियां हिन्दुस्तानी ही ले गये थे। गांधी जी ने इतिहास लेखन में भाषा को भी प्रमुख स्थान दिया है। वह काले आदमियों में उनकी भाषाओं और जातियों की पहचान करते हैं।”
अध्ययन के सभी विषयानुशासन मनुष्य के गढ़े हैं, मनुष्य के लिए हैं। वृहत्तर मानवता का लोकमंगल ही सभी विषयों के ज्ञान का लक्ष्य है। इतिहास में लोकमंगल साधने का कर्मयोग और व्यवहार शास्त्र पसरा हुआ है। मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप की इतिहास देखने की प्राचीन दृष्टि क्या थी? क्या मिथकीय ही थी? क्या महाकाव्यों पुराणों और उसके भी पहले रचे गए वैदिक साहित्य के नायक काल्पनिक ही हैं?
भारतीय इतिहास दृष्टि में लोकमंगल का लक्ष्य है और समग्रता का दृष्टिकोण है। इतिहासबोध राष्ट्रभाव की आत्मा है। स्वाधीनता संग्राम के सभी शिखर पुरूष वास्तविक इतिहासबोध से लैस थे। गांधी जी का इतिहास बोध अप्रतिम था। ‘द इण्डियन स्ट्रगल’ (1920-42) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की लिखी प्रीतिकर ऐतिहासिक किताब है। पुस्तक का 1920-35 तक का हिस्सा लारेन्स ऐण्ड विशर्ट लंदन ने जनवरी 1935 में छापा था। भारत में इस पर प्रतिबंध लगा। ‘हाउस आफ कामंस’ में भारत मंत्री सेमुअल होर ने सफाई दी “इसकी सामग्री आतंकवाद और सीधी कार्रवाई को प्रोत्साहन देने वाली है। पुस्तक का शेष भाग (1935 से 1942 तक) बाद में लिखा गया था। भारत सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित नेताजी सम्पूर्ण वाड्.मय के खण्ड 2 में यह पुस्तक संकलित है। नेताजी के मस्तिष्क में भारत क्या था? लिखते हैं, “भौगोलिक दृष्टि से देखें तो लगता है कि भारत शेष संसार से अलग अपने आप में पूर्ण एक स्वायत्त इकाई है उत्तर में विशाल हिमालय और दोनों ओर महासागरों से घिरा भारत एक स्पष्ट भौगोलिक इकाई होने की बेजोड़ मिसाल है। रक्त या जातीय भिन्नता तो भारत में कभी कोई समस्या रही ही नहीं, क्योंकि अपने समूचे इतिहास में वह न जाने कितनी जातियों को आत्मसात करने और उन सब पर अपनी समान संस्कृति और परम्परा की छाप डालने में समर्थ रहा है।”5 यहां ‘समान संस्कृति’ का अर्थ पूरे देश की एक संस्कृति है।
भारत में विविधता है, आपसी झगड़े भी हैं, बावजूद इसके भारत एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधा हुआ है। सो क्यों? नेता जी ने लिखा है, “सबको जोड़ने और मिलाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन रहा है हिन्दू धर्म। उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम - आप कही भी जाएं, आपको सर्वत्र समान धार्मिक विचार, समान संस्कृति और समान परम्पराएं मिलेंगी। सभी हिन्दू भारत को अपनी पुण्य भूमि मानते हैं। हिन्दुओं की पवित्र नदियां और पवित्र नगरियां देश-भर में फैली है।” (वही) भारतवासी नदियों को प्रणाम करते हैं। वे इतिहास भूगोल के प्रति श्रद्धा रखते हैं। नेताजी द्वारा प्रयुक्त ‘समान धार्मिक विचार, समान संस्कृति और समान परम्परांए’ शब्द ध्यान देने योग्य है। धर्म यहां जीवन की आचार संहिता है। यह एक समान संस्कृति का प्रेरक है।
लेखक श्री हृदयनारायण दीक्षित उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।
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