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कभी मंदिरों में जाने पर रोक थी, लेकिन अब बाक़ायदा करा रहे हैं पूजा-अर्चना!


रवि पाराशर (वरिष्ठ पत्रकार)

लेखक - रवि पाराशर


देश भर में जातीय आधारों में सिमटी दिखाई दे रही राजनीति के मौजूदा दौर में क्या आपको इस बात पर भरोसा होगा कि बहुत से हिंदू मंदिरों में अब वंचित दलित वर्ग के पुजारी भी पूजा-अर्चना करा रहे हैं? आपको विश्वास होना चाहिए कि ऐसा वास्तव में हो रहा है। असल में आप तक ऐसे सकारात्मक समाचार कम ही पहुंचते हैं।


जातियों में बंटे सामाजिक ढांचे की दरारें पाटने की ख़बरों पर मीडिया का ध्यान कम जाता है, लेकिन जातीय आधार पर जनगणना की मांग पर बहस सुर्ख़ियों में है, क्योंकि यह सामाजिक उत्थान का नहीं, बल्कि राजनैतिक मसला या मसाला है। बहुत सी राजनैतिक पार्टियां इसका समर्थन कर रही हैं, जिनमें भारतीय जनता पार्टी की बिहार इकाई भी शामिल है। बिहार में बीजेपी जनता दल यूनाइटेड के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल है और केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार है। ऐसे में जातीय जनगणना के मुद्दे पर उसकी राजनैतिक विवशता या कशमकश को समझा जा सकता है।


अब यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि जो लोग जातीय जनगणना के पक्ष में हैं, उनकी सियासत का मुख्य आधार अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी ही है। यह बात भी सब जानते हैं कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर देश में ओबीसी की औसत आबादी 52 प्रतिशत मान कर ही सारी पार्टियां चुनावी रणनीति बनाती हैं। केंद्र सरकार ने हंगामेदार मॉनसून सत्र में 127वें संविधान संशोधन विधेयक के माध्यम से ओबीसी आरक्षण की गेंद राज्यों के पाले में डाल दी है। अब राज्य इस बारे में सियासत करने का आरोप केंद्र पर नहीं लगा सकते। बहरहाल, लगता तो नहीं, फिर भी अगर केंद्र सरकार 1931 के बाद पहली बार जातीय जनगणना पर सहमत होती है, तो समाज में विभाजन की कुछ आभासी रेखाओं को पुष्ट आधार मिल जाएगा, इसमें कोई संदेह किसी को नहीं होना चाहिए। प्रश्न यह भी है कि ऐसे में सिर्फ़ हिंदू समाज के जातीय आंकड़े ही सामाजिक बंटवारे की असहिष्णु रेखाओं को गहरा करेंगे या फिर मुस्लिम समुदाय समेत सभी धर्मों के समाजों में विभाजन की अंतर्धाराएं ज़्यादा ज़हरीली और तेज़ाबी हो जाएंगी? जो भी हो, स्वतंत्रता प्राप्ति का अमृत महोत्सव मनाए जाने के दौर में किसी संवेदनशील भारतीय नागरिक को समाज को और अधिक बांटने वाली जातीय जनगणना का समर्थन नहीं करना चाहिए।


जातीय आधार पर जनगणना की मांग के मुहाने पर बैठे उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव, 2021 को लेकर सरगर्मियां ज़ोरों पर हैं। बीजेपी की बिहार इकाई जातीय जनगणना की मांग में भले शामिल हो, लेकिन पार्टी में मोटे तौर पर इसे लेकर कोई सकारात्मक हलचल नहीं है। वंचित वर्ग के आर्थिक, सामाजिक उत्थान की राजनीति का दम भरने वाली बहुजन समाज पार्टी 2007 की तरह फिर से ब्राह्मण वर्ग पर डोरे डालने में जुटी है, तो नाम भर को समाजवादी रह गई अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मणों के सहारे चुनावी वैतरिणी पार करने की फिराक में है। कुल मिलाकर लगता ऐसा है कि लोकतंत्र में अब चुनाव सिर्फ़ और सिर्फ़ जातीय आधारों पर ही लड़े जाने लगे हैं। विकास और दूसरे तमाम सकारात्मक मुद्दे कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं और लोकतंत्र भी मोटे तौर पर जातितंत्र में बदलता जा रहा है? ऐसे में जातीय जनगणना का समर्थन नहीं किया जा सकता।


ऐसे माहौल में यदि समाचार आता है कि हिंदुओं की आस्था के केंद्र देश के बहुत से मंदिरों में अब वंचित समुदाय के पुजारी पूजा-अर्चना करा रहे हैं, तो महसूस होता है कि विषमता के तपते रिगिस्तान में समरसता के अमृत की बहुत सी बूंदें निर्बाध बरसने लगी हैं। विश्व हिंदू परिषद और उसकी सहयोगी संस्थाओं को हालांकि इस दिशा में अभी बहुत काम करना है, लेकिन सनातन समाज में समरसता क़ायम करने के उनके प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए। वर्ष 1964 में वीएचपी अस्तित्व में आई और 29 अगस्त को उसका स्थापना दिवस होता है। इस वर्ष परिषद 58वां स्थापना दिवस मना रही है। आमतौर पर वीएचपी को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन से ही जोड़कर देखा जाता है, लेकिन संस्था भारत और विश्व में सनातन समाज की बेहतरी और ख़ुशहाली के लिए बहुत से स्तरों पर काम कर रही है। भेदभाव मिटाने के लिए संस्था का मुख्य मोटो है- एक मंदिर, एक कुआं, एक श्मशान – तभी बनेगा भारत महान। अपने इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वीएचपी पुजारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही है, जिसमें सभी जातियों के सुपात्र हिस्सा ले सकते हैं।



वीएचपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल बताते हैं कि अभी देश के दक्षिणी राज्यों में दलित-वंचित पुजारियों की संख्या अपेक्षाकृत रूप से अधिक है। अकेले तमिलनाडु में दलित समुदाय के पुजारियों की संख्या ढाई हज़ार से अधिक है। साथ ही आंध्र प्रदेश में भी वीएचपी ने वंचित वर्गों के बहुत से पुजारी तैयार किए हैं। संगठन अभी तक देश भर में दलित समुदाय के पांच हज़ार से ज़्यादा पुजारी तैयार होने को बड़ी सफलता मानता है। पहले जिन्हें मंदिरों में पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं होती थी, वे ही अगर अब पूजा-अर्चना करा रहे हैं, तो यह भारतीय समाज में आया क्रांतिकारी बदलाव ही कहा जाएगा। वीएचपी का अर्चक पुरोहित विभाग और सामाजिक समरसता विभाग बिना किसी जातीय भेदभाव के इच्छुक व्यक्तियों को विधि-विधान से पूजा-अर्चना की विधि सिखा रहे हैं। प्रशिक्षण पूरा होने पर उन्हें बाक़ायदा प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। आंध्र प्रदेश में तिरुपति बालाजी प्रबंधन ऐसे प्रमाण पत्र देता है।


विनोद बताते हैं कि विश्व हिंदू परिषद अपनी स्थापना के बाद से ही समाज में छुआछूत ख़त्म करने के काम में लगी है। वर्ष 1969 में कर्नाटक के उडुपी में हुई धर्म संसद में इसके लिए बाक़ायदा संकल्प पारित किया गया। वर्ष 1994 में वाराणसी में हुई धर्म संसद में डोम राजा वीएचपी और संतों के निमंत्रण पर आए थे। नवंबर, 1989 में अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास भी कामेश्वर चौपाल के हाथों कराकर सामाजिक समरसता का संदेश दिया गया था।


पुजारी तैयार करने के मामले में विश्व हिंदू परिषद की लोकप्रियता का ही नतीजा है कि विपरीत विचारधारा को भी दलितों को पुजारी का दर्जा देने की दिशा में काम करना पड़ा। अक्टूबर, 2017 में केरल में त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड ने छह दलितों को आधिकारिक तौर पर पुजारी नियुक्त किया था। इससे पहले भी ग़ैर-ब्राह्मणों को पुजारी बनाया गया था, लेकिन दलितों को पुजारी का दर्जा सरकारी तौर पर पहली बार दिया गया। केरल में बोर्ड डेढ़ हज़ार से अधिक मंदिरों का संचालन करता है। वर्ष 2017 में बोर्ड ने देश में पहली बार इस मामले में सरकारी आरक्षण नीति का पालन किया। लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के बाद पिछड़े समुदाय के 36 उम्मीदवारों का चयन पुजारी के तौर पर किया गया, जिनमें से छह दलित समुदाय के थे। त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड के अध्यक्ष गोपालकृष्णन ने तब आशंका जताई थी कि दलितों को पुजारी बनाने के फ़ैसले का विरोध हो सकता है, लेकिन केरल की वाम मोर्चा सरकार के इस क़दम का वीएचपी ने स्वागत किया। वीएचपी के केंद्रीय संयुक्त महामंत्री डॉ. सुरेंद्र जैन ने कहा था कि ‘सुपात्र’ यानी शास्त्रीय सनातन पद्धति पर खरा उतरने वाला कोई भी व्यक्ति पूजा-अर्चना कराता है, तो इसमें कोई परेशानी नहीं है।



हालांकि तब कुछ विचारकों ने यह भी कहा था कि आर्थिक रूप से कमज़ोर ब्राह्मणों के हितों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण समाज को भी अब सामाजिक अलगाव की भावना से दो-चार होना पड़ रहा है। ऐसे में पूजा-पाठ कराने के उनके स्वाभाविक अधिकारों का अतिक्रमण जातीय दुर्भावना के शमन और कुत्सित राजनैतिक उद्देश्यपूर्ति के लिए नहीं किया जाना चाहिए। बहरहाल, आशंकाओं के अनुरूप देश के ब्राह्मण समाज ने दलित पुजारियों की नियुक्ति का विरोध नहीं किया। हालांकि जुलाई, 2021 में त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड की एक अधिसूचना को केरल हाई कोर्ट में चुनौती दी गई। अधिसूचना में कहा गया था कि सबरीमाला और मलिकप्पुरम मंदिरों में मुख्य पुजारी पद के लिए सिर्फ़ मलयाली ब्राह्मण ही आवेदन कर सकते हैं। याचिका में कहा गया कि बोर्ड की अधिसूचना से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत नागरिकों को मिले अधिकारों का उल्लंघन होता है।


भगवान राम को सामाजिक समरसता का सर्वोच्च प्रखर प्रतीक मानने वाली विश्व हिंदू परिषद ने भविष्य में आस्थावान समाज में जातीय भेदभाव मिटाने के प्रयास और तेज़ करने का मन बनाया है, तो यह स्वागत योग्य निर्णय है। भगवान राम ने अपने पूरे जीवन में समरसता का ही संदेश दिया, अशक्तों, उपेक्षितों को अपनाया, उन्हें न्याय दिलाया। राम ने कभी भेदभाव नहीं किया। सक्षम राजा होते हुए भी सीता के अपहरण के बाद रावण को दंड देने के लिए उन्होंने सुप्रशिक्षित, सुसज्जित क्षत्रिय सेना नहीं बुलाई, बल्कि अपने वनवासी मित्रों की सहायता से ही लक्ष्य प्राप्त किया। कुल मिलाकर सनातन आस्था के प्रति निष्ठावान जिन लोगों के भी हृदय में राम और रामत्व हो, वे पूजा-अर्चना कराने की पात्रता रखते ही हैं। इसमें किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है?


लेखक - रवि पाराशर (वरिष्ठ पत्रकार)


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