"उम्र के मायने हर जगह नहीं चलते...
उम्र तजुर्बे की हो सकती है, मुहब्बत की नहीं"
नारी मातृत्व से लबरेज़ एक नाम जिसमें मां वाला किरदार हमेशा हर रूप में रहता है। वो कभी बेटे को वात्सल्य भाव से सहेजती है तो कभी घर के बूढ़े बुज़ुर्गों की सेवा में अपने आप को समाहित करते हुए उन्हें अपने बच्चों सा डांटती है कि दवा क्यों नहीं खाई??खाना कम क्यों खाया? आदि आदि।
रिश्तों में एक ख़ास रिश्ता माने पति परमेश्वर.. उसे परमेश्वर माना जाए तो भी न माना जाए तो भी एक पत्नी उसका अपने शिशु की तरह ख़्याल रखती है सच बात तो यही है कि उसने क्या खाया नहीं खाया..उसकी पसन्द और नापसन्द ...उसकी जरूरतें ..उसकी आदतें कभी उसे सजाती है ,संवारती है टीका लगाती है तो कभी शिशु की मुस्कान देखती है उसमें।
कभी उसके साथ उन्मुक्त आकाश की स्वामिनी होती है तो कभी उसके भविष्य की चिंता में रत रहती है.. उसे इस रंग की शर्ट पसन्द है किस कम्पनी का परफ्यूम ,कल क्या क्या खिलाना है..बिगड़ा हुआ मन कैसे ठीक करना है आख़िर सब तो पत्नी को ज़ुबान पर रटा रहता है वो कभी पत्नी की तरह लड़ाई करती है तो कभी माँ की तरह मुश्किलों में सम्भाल लेती है।
यही नहीं घर की छोटी बच्ची भी अपने बाप की नानी बनी रहती है केयर के मामले में...पिता से यदि वही बच्ची खिलौनों की ज़िद करती है तो वही बच्ची पसीना भी पोंछती है थके बाप के माथे से। कहने का मतलब पूरा का पूरा कलेवर ये है कि नारी जिस भी रूप में होती है सेवा भाव में उसका कोई सानी नहीं...माँ जैसी शुभेच्छा किसे नहीं अच्छी लगती? हम हर परिस्थिति में मां को ही तो पुकारते हैं फिर बिना इस रिश्ते के जीने का आनन्द कैसा?
नारी का सम्मान जहां भी होगा नारी अपने समर्पण का 100% अवश्य देगी ये तय है। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना कि कभी भगनी कभी भार्या कभी मां कभी बेटी होती है।नारी है तभी आत्मा जीवंत है,सरसता है,जीवन है,चैतन्यता है और वात्सल्य का विस्तृत आकाश है जिसमें सब कुछ सजीव है। उस धरती जैसे धीरज वाली हर स्त्री के रूप को प्रणाम।
नारी-मन को प्रणाम
मातृ-मन को प्रणाम!!!