जनकल्याणकारी योजनाओं और अन्त्योदय के सिद्धांत को सिरमाथे लगाकर भारतीय जनता पार्टी देश और प्रदेश में सरकार चलाती रही। नतीजों में पैरों के नीचे से जमीन खिसक है। यूं ही नहीं कहते कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। यूपी डगमगाया तो बहुमत होने के बावजूद बीजेपी को निवाला हलक से नीचे उतारने के लिए जबरदस्त जुगाली करनी होगी। विपक्ष जिसे तानाशाह बताता रहा उन नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती है कि वो अपने राजनीतिक कला-कौशल से सिद्ध करें कि सबका साथ – सबका विकास जुमला नहीं है।
उत्तर प्रदेश के नतीजों को लेकर लगातार आंकलन हो रहा है। समाजवादी पार्टी कैसे जीती इस बात पर अगर चर्चाएं हैं तो बीजेपी क्यों हारी इस बात पर बहस गर्म है। अयोध्या का नतीजा दुनिया भर को बताने के लिए पर्याप्त ही चुनाव में जनता ही जनार्दन होती है और जनार्दन ही चमत्कार करते हैं।
भारतीय जनता पार्टी की हार के कारणों में अब तक जातिगत समीकरण, अन्दरुनी गुटबाजी, विपक्ष की बेहतर रणनीति आदि के विषय में खूब लिखा जा रहा है परंतु जिस बात की अनदेखी हो रही है वो सबसे गंभीर मसला है।
यूपी की जनता जो वोट करती है उसमें शिक्षक हैं, विभिन्न विभागों के सरकारी कर्मचारी हैं, रिटायर पेंशनर्स हैं, वकील हैं, राशन कोटेदार हैं, व्यापारी है, छात्र हैं, युवा हैं जिनके हाथ में रोजगार है और ऐसे भी हैं जो बेरोजगार हैं। जीत-हार की पैमाइश इस पैमाने पर भी जरुरी है।
उत्तर प्रदेश का शिक्षक वर्ग लंबे समय से प्रदेश सरकार से नाराज चल रहा है। शिक्षकों की कुछ मांगें हैं जिसे लेकर पहले स्थानीय जिला स्तर पर फिर राजधानी लखनऊ में और फिर दिल्ली के रामलीला मैदान में बहुत बड़ी-बड़ी रैलियां हुईं। परंतु ना तो इन रैलियों को मीडिया में उचित स्थान मिला और ना ही मुख्यमंत्री तक नौकरशाहों ने सही रिपोर्ट पहंचाईं। सरकार के विरोध को किसी भी स्तर तक दबाने की नौकरशाहों की प्रवृति ने मुख्यमंत्री को लगभग लाचार बना दिया है। ऐसा नहीं है कि योगी आदित्यनाथ में उत्तर प्रदेश के किसी वर्ग की समस्या का उचित समाधान निकालने का माद्दा नहीं है या समस्या हल करने की उनकी चाह नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी जब किसी को अपनी जकड़ में लेती है तो उस जमीनी हकीकत से दूर कर देती है। यही इस बार भी हुआ और हो रहा है।
यकीन ना आए तो बीते चार दशक का इतिहास देख लीजिए। मायावती, अखिलेश यादव, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह ये सभी यूपी के अलग अलग दौर में मुख्यमंत्री रहे। जब तक मुलायम और मायावती अपने कैडर को अपनी ही सरकार के आंख-कान मानते रहे बारी-बारी सत्ता में लौटते रहे। परंतु जैसे ही 2007 में मायावती अपने दम पर बहुमत लाईं तो ब्यूरोक्रेसी ने मायावती को जप लिया, फिर अखिलेश यादव को जप लिया और अब यही काम योगी आदित्यनाथ के साथ हो रहा है।
चूंकि प्रदेश संगठन और सरकार पर केंद्रीय बीजेपी की आंख रहती है इसलिए बहुत सारा खेल पर्दे के पीछे ऐसे खेला जा रहा है जिसका कुछ हिस्सा सीएम योगी से छिपाया जाता है तो कुछ हिस्सा केंद्रीय नेतृत्व से। रही-सही कसर तब निकल जाती है जब यूपी ब्यूरोक्रेसी मीडिया को मैनेज करने के नाम पर सिर्फ तारीफों के पुल बंधवाना चाहती है और इस फेर में जमीनी आंदोलनों का पता भी सरकार को नहीं चल पाता।
शिक्षकों की ही तरह बिजली विभाग, जल शक्ति विभाग, स्टेट पीडब्लूडी जैसे तमाम विभागों के कर्मचारी अपनी छोटी बड़ी मांगो के साथ साथ कई-कई माह तक वेतन का इंतजार करते रहे हैं। विधानसभा और बापू भवन से महज कुछ कदम पर यूपी एग्रो कार्पोरेशन का दफ्तर है। विभाग तो बंद ही मान लीजिए, चंद कर्मचारी बचे हैं जो तनख्वाह के साथ काम चाहते हैं जिन्हें ऊपर बैठे आईएएस से रास्ता निकलने की उम्मीद है लेकिन यहां अब देने वालों के पास आश्वासन भी नहीं बचे हैं। हैरानी की बात यह है लखनऊ में बैठकर जिस व्यक्ति ने यूपी एग्रो के बड़े घोटाले अंजाम दिए, सस्पेंड हुआ, बहाली के बाद वो गोरखपुर में तैनात है।
एक तबका सरकारी सेवा से रिटायर हो रहे लोगों का भी है जो सरकार की ओर से पेंशन निर्धारण की बाट जोह रहा है। लाख-सवा लाख रुपए तक तनख्वाह पाने वाले ऐसे कर्मचारी जो नई पेंशन स्कीम के तहत आते हैं रिटायर होते ही उन्हें पेंशन के रुप में महज पांच-सात सौ रुपए ही मिल रहे हैं। ऐसे कर्मचारियों के लिए केंद्र और राज्य सरकार लगातार कहते आ रहे हैं कि एक सम्मानजनक रकम पेंशन के रुप में दी जानी चाहिए जो रिटायरमेंट के समय की तनख्वाह का चालीस पैंतालीस प्रतिशत तक हो सकती है। परंतु ना तो केंद्र सरकार और ना ही राज्य सरकार इस पर कोई फैसला अब तक नहीं ले पाई। दूसरी तरफ विपक्ष पुरानी पेंशन का हर चुनाव में राग अलाप रहा है। पुरानी पेंशन विपक्ष लागू कर पाए या ना कर पाए मौजूदा केंद्र और राज्य सरकार के अनिर्णय की वजह से कई रिटायर कर्मचारियों को दो वक्त की रोटी के भी लाले लग रहे हैं।
इसी प्रकार छोटे और मध्यम व्यापारी, छात्र, वकील जैसे विभिन्न सामाजिक तबके अपने अपने हिस्से की समस्या का सरकार से समाधान चाहते हैं आश्वासन नहीं।
सही मायने में जनता से जुड़ा नेता और राजनीतिक दल वही होता है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने खिलाफ अगर शोर ना सुने तो उसके कान खड़े हो जाने चाहिए।
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