नई दिल्ली, 30 जुलाई 2022 : लंबे अर्से से तमाम प्रयासों के बावजूद विपक्षी एकता की सियासत कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के चल रहे शह-मात के दौर से बाहर नहीं निकल पा रही है। विपक्षी खेमे की क्षेत्रीय पार्टियां इस हालत के लिए कांग्रेस की रीति-नीति के साथ उसकी कमजोर हुई सियासी जमीन को जिम्मेदार ठहरा रहीं। मगर दिलचस्प यह भी है कि इन क्षेत्रीय दलों को अपने राज्यों में कांग्रेस की मजबूती से राजनीतिक वापसी भी स्वीकार्य नहीं है।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के केरल जाकर वायनाड से चुनाव लड़ने के फैसले पर वामपंथी दल भाकपा का तीन साल बाद भी सवाल उठाना। संसद में विपक्षी खेमे के बीच राजनीतिक वजहों से बढ़े सहयोग के बावजूद कांग्रेस को किनारे रखते हुए विपक्ष को गोलबंद करने के अपने एजेंडे के तहत तेलंगाना के सीएम टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव की सपा प्रमुख अखिलेश यादव से ताजा मुलाकात इसका साफ संकेत है।
क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के बीच दूर भी पास भी, साथ भी खिलाफ भी का सियासी शह-मात का दौर 2019 के आम चुनाव से पहले ही शुरू हुआ था। लगातार दूसरे आम चुनाव में विपक्ष को लगे सदमे के बाद पिछले तीन सालों में विपक्षी एकता की पहल को आगे बढ़ाने की दर्जन भर पहल हुई है जिसमें कांग्रेस से लेकर ममता बनर्जी, शरद पवार से लेकर के चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव से लेकर वामपंथी दल सबने अपने-अपने दांव आजमाए हैं।
इसके बावजूद विपक्षी खेमे में शामिल क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के बीच सियासी विश्वास की डोर इतनी मजबूती से नहीं बंध पा रही है जो कम से कम 2024 के चुनाव तक खुल न सके। इसकी वजह भी साफ है कि कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जिनके प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस फिर से ताकत के रुप में वापसी करती है तो उनका सियासी आधार कमजोर होगा। ऐसे में इन क्षेत्रीय दलों की प्राथमिकता स्वाभाविक रुप से अपने सूबों में अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना है।
राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने के फैसले पर तीन साल बाद भी सवाल उठाने का वामपंथी दलों का रूख इसी बात की गवाही देता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल के केरल से चुनाव लड़ने के कारण सूबे की 21 में से 20 सीटें कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की झोली में आ गई। इसी वजह से वामदलों का लोकसभा में आंकड़ा दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाया।
पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा से वामपंथी गढ़ ध्वस्त होने के बाद केरल ही देश में वाम राजनीति की पताका को थामे हुए है। कांग्रेस यहां वापसी करेगी तो वामदलों की सियासी स्थिति क्या होगी यह सहज ही समझा जा सकता है। तेलंगाना में लगातार दूसरी बार सत्ता में आए केसीआर के लिए भी कांग्रेस का उभरना चिंताजनक है। इसीलिए विपक्षी एकता की पहल करते हुए भी कांग्रेस को दरकिनार रखना उनकी सियासी रणनीति का हिस्सा है। तृणमूल कांग्रेस तो पिछले कुछ अर्से से लगातार ऐसे दांव चल रही है जिससे विपक्षी राजनीति में कांग्रेस की अग्रणी भूमिका में अवरोध खड़े हों।
राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मु के एनडीए के उम्मीदवार बनाने के बाद यशवंत सिन्हा के चुनाव अभियान को मझधार में केवल कांग्रेस के भरोसे छोड़ देने का कदम हो या उपराष्ट्रपति चुनाव में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के एनडीए उम्मीदवार बनने के बाद चुनाव में हिस्सा नहीं लेने का ममता का कदम इसके ताजा नमूने हैं। ममता के इन दोनों फैसलों में विपक्षी एकता की कोई परवाह नहीं दिखती। इसमें विशुद्ध रुप से तृणमूल कांग्रेस के सियासी हित को साधने की रणनीति साफ नजर आती है। संसद के मौजूदा मानसून सत्र के दौरान सदन में सरकार को बैकफुट पर धकेलने के लिए तृणमूल और टीआरएस जैसी पार्टियां कांग्रेस के साथ तो दिखाई देती हैं लेकिन इसके तुरंत बाद कांग्रेस और उसके नेतृत्व से एक खिंचावभरी दूरी का संदेश देने का कोई मौका नहीं छोड़तीं।
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