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काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के बनने-उजड़ने का सिलसिला, जानिए इनसाइड स्टोरी


वाराणसी, 17 मई 2022 : कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ का यह मंदिर काशी में भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान भी है। 11वीं सदी तक यह अपने मूल रूप में बना रहा, सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था लेकिन वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। हालाँकि, इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर नष्ट हो गए।



इसके बाद सबसे बड़ा विध्वंश आततायी औरंगजेब ने करवाया जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था।

मंदिर से औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। और इस बार मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर करा दी गई है। मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की।

एक और घटना जो उस समय घटी वह यह है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को कोई क्षति न हो इसके लिए मंदिर के महंत शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कुंड में ही कूद गए थे। हमले के दौरान मुगल सेना ने मंदिर के बाहर स्थापित विशाल नंदी की प्रतिमा को भी तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वे नंदी की प्रतिमा को नहीं तोड़ सके। जो आज भी अपने महादेव के इंतजार में मंदिर के उसी पुराने परिसर जो अब ज्ञानवापी मस्जिद है, की तरफ एक टक देख रहे हैं।



हालाँकि, तब से आज तक विश्वनाथ मंदिर परिसर से दूर रहे ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी को एक बार फिर विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल कर लिया गया है। और यह संभव हुआ है विश्वनाथ धाम के निर्माण के बाद। इस प्रकार 352 साल पहले अलग हुआ यह ज्ञानवापी कूप एक बार फिर विश्वनाथ धाम परिसर में आ गया है। लेकिन नंदी महराज की दिशा और दृष्टि से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। जो कहीं न कहीं बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का आवाहन तब तक करते रहेंगे जब तक वो अपने महादेव को देख नहीं लेते।

एक बार फिर वापस लौटते हैं इतिहास के पन्नों में, औरंगजेब के आदेश पर उस समय मंदिर संकुल को तुड़वा कर बाबा विश्वनाथ मंदिर के ही ऊपर एक मस्जिद बना दी गई। जिसे बाद में औरंगजेब द्वारा दिया गया नाम था अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद, जिसे बाद में ज्ञानवापी के नाम पर ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया। ज्ञानवापी यानी ज्ञान का कुँआ। उसके बाद कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिन्धिया सरदारों की मदद से मंदिर परिसर का स्वरुप बनता-बिगड़ता रहा। लेकिन उसकी वह अलौकिक भव्यता नहीं लौटी जो काशी में कभी हुआ करती थी।

औरंगजेब के जाने बाद मंदिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष जारी रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिन्धिया और मल्हार राव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली। महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया पर वह उसका वह पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाई। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। वहीं तभी से संकुल के दूसरे मंदिरों पर पुजारियों-पुरोहितों का क़ब्ज़ा हो गया और धीरे-धीरे मंदिर परिसर एक ऐसी गलियों की बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर तक क़ैद हो गए।

आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल 1809 में काशी के हिन्दुओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। इस प्रकार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएँ 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही। हालाँकि, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही जारी यह विवाद आज तक चल रहा है।

28 जनवरी, 1983 को मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसका प्रबंधन तब से डॉ विभूति नारायण सिंह को एक ट्रस्ट के रूप में सौंपा गया है। इसमें पूर्व काशी नरेश, अध्यक्ष के रूप में और मंडल के आयुक्त के चेयरमैन के साथ एक कार्यकारी समिति बनाई गई। अभी एक न्यास परिषद भी है जो मंदिर के पूजा सम्बन्धी प्रावधानों को भी देखता है।

एक और बात वर्तमान आकार में मुख्य मंदिर 1780 में इंदौर की स्वर्गीय महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था। 1785 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कहने पर तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद इब्राहीम खान द्वारा मंदिर के सामने एक नौबतखाना बनाया गया था। 1839 में, मंदिर के दो गुंबदों को पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दान किए गए सोने से कवर किया गया। तीसरा गुंबद अभी भी वैसे ही बिना स्वर्ण जड़ित है। जिस पर योगी सरकार ने ध्यान देते हुए संस्कृति धार्मिक मामले मंत्रालय के जरिए मंदिर के तीसरे शिखर को भी स्वर्णमंडित करने में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।

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