google.com, pub-3470501544538190, DIRECT, f08c47fec0942fa0
top of page

मीलार्ड या श्रीमन् ! कौन सहज ? लोकभाषा में कोर्ट कार्य कब !!


के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao : कोर्ट में जजों को कैसे संबोधित किया जाए ? अरसे से इस पर वाद-विवाद चलता रहा। न्यायमूर्ति कैसे उच्चरित हों ? गत सप्ताह भारत के प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने सर्वोच्च न्यायालय में अनुरोध किया कि बजाय “लॉर्डशिप” के केवल “सर” (महोदय) कहा जाए। यूं यह शब्द “लॉर्ड” हिन्दी में भगवान अथवा स्वामी के लिए उपयोग होता है। सामंत युग से प्रचलित है। मगर “सर” के प्रयोग से एक आभासी खतरा तो है ही। कहावत भी है अति परिचायाद् अवज्ञा। अंग्रेजी में कहते हैं : Familiarity breeds contempt. तो आशंका है कि “सर” संबोधन से कहीं जज के पद की क्रमशः अवमूल्यन न हो जाए।

अर्थात सियासत तथा अदालत में सम्माननीय फासला बना रहे। “लॉर्ड” और “सर” में प्रभाव का अनुपात शंकाग्रस्त है। मसलन शिक्षा संस्थानों में “सर” के मायने हैं : “मास्टरजी”। बड़ा देसी संबोधन है। अपकर्ष सा प्रतीत होता है। यूं लार्ड शब्द की उत्पत्ति सोलहवीं सदी की है। तब दुनिया के ज्यादातर राजा निरंकुश और अहंकारी होते थे। उन्होंने अपने सम्मान के लिए कई अन्य शब्दों का उपयोग करवाया, ताकि वह दुनिया में सबसे अलग पहचाने जाएं। कुछ राजाओं के लिए तो इस प्रकार के शब्दों का उपयोग किया गया जो राजा को भगवान प्रदर्शित करते थे। “माय लॉर्ड” भी एक ऐसा ही शब्द है। क्रमशः न्यायतंत्र में यह प्रवेश कर गया। स्वीकार्य हुआ। प्रचिलित भी।

“लॉर्ड” संबोधन अंग्रेजी भाषा में औपनिवेशिक काल का अवशेष है। घालमेल बढ़ गया जब महिला जज को “माई लेडी” कहा जाने लगा। माई लेडी का इस्तेमाल अर्धांगिनी, प्रेयसी अथवा मालकिन के लिए होता है। भारत में 1955 में हाईकोर्ट में जब केरल की श्रीमती अन्ना चांडी प्रथम महिला जज नामित हुई थीं तो यही प्रश्न उठा था। भारतीय बार काउंसिल ने तब (2006 में) अपनी नियमावली में धारा 49, उपधारा (1) में “जे” जोड़ा था, ताकि “यूवर लेडीशिप” कहा जाए। मगर सवाल उठा कि महिला न्यायाधीश को कैसे संबोधित किया जाए ? जज या योर ऑनर ? उन्हें मैम कहकर संबोधित करें।

एकदा पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जस्टिस अरुण कुमार त्यागी ने बार एसोसिएशन के सदस्यों को नोट जारी किया। कहा : “मुझे ‘योर लॉर्डशिप’ या ‘माई लॉर्ड’ न कहा जाए। इसी तरह ‘ओब्लाइज्ड’ और ‘ग्रेटफुल’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी मेरे सामने न करें।” “माई लॉर्ड” वाले सामंती उद्बोधन पर विवाद तो बढ़ता-घटता रहा। पर कोर्ट की भाषा के मसले पर इन पचहत्तर वर्षों के बाद भी कोई हल नहीं निकल पाया। मुख्य कारण यही रहा कि दंड संहिता और समस्त कानून अंग्रेजी में हैं। एक शब्द के अर्थ-अनर्थ पर बहस होती रहती है। अदालत में अंग्रेजी माध्यम के कारण आम याचिकाकर्ता पूर्णतया अनभिज्ञ रह जाता है कि उसके मामले में चर्चा किस तरह कैसे हो रही है ? हालांकि निजी तथा नैसर्गिक न्याय के अनुसार उसे जानने का पूरा अधिकार है।

सर्वप्रथम कोर्ट में माध्यम की भाषा का मसला गंभीर रूप से डॉ. राममनोहर लोहिया ने खुद उठाया था। एक दफा लखनऊ के 'ब्रिकी कर कार्यालय के बाहर लोहिया गए थे। सत्याग्रह करने। तभी एक डाकिया उस कार्यालय में आया। लोहिया ने उसे रोका कि “इस दफ्तर के कामों से खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ते हैं।” इतनी मामूली बात पर उन्हें 'क्रिमनल लॉ एमेंडमेंट एक्ट की धारा 7 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। फिर 30 नवंबर को मजिस्ट्रेट ने जेल के अहाते में ही मुकदमा शुरू किया। लोहिया ने मुकदमें की कार्रवाई में शामिल होने से इनकार कर दिया। कारण कि उनके वकील को उनकी बैरक में आकर नहीं मिलने दिया गया। उसी दिन शाम को चार बजे जेल अधीक्षक ने लोहिया को बलपूर्वक अदालत में हाजिर होने की सूचना दी। लोहियाजी ने उन्हें मामला उच्च न्यायालय में होने की बात कही। लेकिन वे नहीं माने। लोहियाजी को कुर्सी से बाँधकर मजिस्ट्रेट के पास शक्तिपूर्वक ले जाया गया, लेकिन उनके सामने उन्होंने कुछ भी बोलने से मना कर दिया। उनको पीटकर उनसे एक सादा कागज पर अंगूठा निशानी ले ली गई।

जेल के भीतर के इस अमानुषिक अत्याचार की खबर बाहर पहुंची और इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के न्यायमूर्ति रणधीर सिंह के सामने अर्जी दी गई। उनके कहने पर न्यायमूर्ति नसिरूल्ला बेग के समक्ष उन्हें प्रस्तुत किया गया। तब 3 दिसंबर को सुनवाई शुरू हुई। लोहिया जी ने स्वयं बहस की हिन्दी में। न्यायमूर्ति बेग और न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला खंडपीठ में थे। बहस पूरी होने पर बेग ने पक्ष में तथा मुल्ला ने विपक्ष में राय दी। तब तीसरे न्यायमूर्ति रघुवीर दयाल के समक्ष यह मामला उठाया गया। दयाल ने श्री मुल्ला का समर्थन किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में 21 दिसंबर को 'रिट दायर की गई। सुनवाई की तारीख थी - 23 दिसंबर 1957। लेकिन सुनवाई वाले दिन की प्रात:काल डॉ. लोहिया को रिहा कर दिया गया।

डॉ. लोहिया ने पूरी बहस राष्ट्रभाषा में की थी। तब लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजवादी युवक सभा का सचिव होने के नाते मैं हाईकोर्ट जाया करता था। स्वयं देखता, सुनता रहता था। तभी से यह मेरा अहसास घना होता गया कि कोर्ट की भाषा को आम आदमी की समझ से परे कभी न हो। लोकशाही का यही तकाजा है। न्यायतंत्र को उसका एहसास करना होगा।

K Vikram Rao

Mobile : 9415000909

E-mail: k.vikramrao@gmail.com


0 views0 comments
bottom of page
google.com, pub-3470501544538190, DIRECT, f08c47fec0942fa0