के. विक्रम राव
पश्चिम बंगाल विधानसभा में कल रात्रि (2 मई 2021) संपन्न हुये मतदान के सिलसिले में कई पहलू उभरते है, कई वाजिब प्रश्न उठते हैं। इन पर राष्ट्र को गौर करना पड़ेगा यदि देश का फिर एक और विभाजन नहीं होने देना है तो। अगर सेक्युलर तथा उदार गणतंत्र संजोये रखना है तो। अर्थात् मजहब का सियासत में घालमेल रोकना है तो।
इसी परिवेश में ममता बनर्जी के चुनाव प्रबंधक प्रशान्त किशोर की उक्ति के भिन्न अभिप्रायों को समझना होगा। वे बोले : ''भाजपा के जय श्रीराम के जवाब में चण्डीपाठ हमारा नारा था।'' अर्थात् हिन्दू वोट हेतु ममता को बधोपाध्याय (बनर्जी का संस्कृत) बनना पड़ा। अपना विप्र वर्ण प्रचारित करना था। गोत्र शाण्डिल्य को उच्चारित करना था। इसी श्रृंखला में नंदीग्राम में शिवालय जाना लाजिमी था। यहीं ममता पर भाजपा के कथित अराजक तत्वों ने उनकी कार का दरवाजा झटके से मारा था। उससे मुख्यमंत्री के टांग और नितम्ब पर चोट लगी थी। हड्डी घायल हो गयी थी। परिणाम स्वरुप ममता के बायें टांग पर प्लास्टर चढ़ाया गया। पहियेदार गाड़ी पर सवार होकर चुनाव प्रचार करना पड़ा। वोटरों की हमदर्दी बटोरने का यह बड़ा मारु साधन मिल गया था। हालांकि जिस दिन चुनाव परिणाम घोषित हुये तत्क्षण ममता भली चंगी हो गयीं। टांगों पर चलने लगी। सारा दर्द लुप्त हो गया। आखिरी वोट भी 53वें दिन पड़ चुका था। एक मिलती जुलती वारदात हुयी थी मार्च 1977 में जब अमेठी चुनाव क्षेत्र में गौरीगंज के आगे कांग्रेसी प्रत्याशी संजय गांधी पर गोली ''चली'' थी। हालांकि फिर भी संजय हार गये। हमदर्दी नहीं मिली। जांच में गोलीकाण्ड बनावटी पाया गया था।
ममता द्वारा चुनाव अभियान के दो तथ्यों पर हर पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रप्रेमियों का विचलित होना स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल के 27 प्रतिशत मुस्लिम वोट हेतु तृणमूल कांग्रेस ने जो प्रहसन रचा, वह बड़ा चिन्ताजनक है। ताज्जुब तो इस तथ्य पर होता है कि सात सदी पुराने फरफरा शरीफ (मौलाना अबू बकर सिद्दीकी) के वंशवाले जनाब पीरजादा अब्बासी सिद्दीकी द्वारा गठित (इंडियन सेक्युलर फ्रंट), वामपंथी और सोनिया—कांग्रेसी वाले महाजोत की अपील को नजरअंदाज कर मुसलमान मतदाताओं के बहुलांश ने तृणमूल कांग्रेस का समर्थन किया। इसका भावार्थ यही कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का एजेण्डा है कि भारत के भीतर नया बांग्लादेश बने। तृणमूल कांग्रेस इन मुसलमानों का पहला प्यार साबित हुयी।
मजहब पर इतना जघन्य ध्रुवीकरण किसी भी चुनाव में आजतक नहीं हुआ। कई अर्थों में ममता ने इस आरोप को सही दिखाया कि वे देश—तोड़क तथा समाज—ध्वंसक अभियान से परहेज नहीं करेंगी। मुसलमान घुसपैठिये तो उनका वोट बैंक हैं ही। भाजपायी हिन्दुवाद का शायद उनका ऐसा ही जवाब था। पर घातक तो यह भारतीय राष्ट्रवाद के लिये रहा। इसी संदर्भ में एक नीति यह भी है कि पारम्परिक तौर पर चुनाव में पराजय की जिम्मेदारी स्वीकार कर पार्टी पुरोधा त्यागपत्र देता है। अमित शाह और जेपी नड्डा से ने पेशकश तक नहीं की।
अब अति महत्वपूर्ण मसला उठता है कि पराजित प्रत्याशी ममता बनर्जी क्या मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी? कानूनन तो यह संभव है। संविधान की धारा 164(4) के अनुसार बिना सदन के सदस्य रहे छह माह तक मंत्री बने रह सकते हैं। अत: ममता बनर्जी भी मुख्यमंत्री भी शपथ ले सकतीं हैं। पर प्रश्न यहां नैतिकता का है। ममता तो नैतिकता की देवी होने का दावा करतीं हैं। आचार, व्यवहार और मर्यादा का तकाजा है कि वह जनादेश जीतकर ही मुख्यमंत्री पद संभाले। नन्दीग्राम के मतदाताओं द्वारा खारिज किये गये इस राजनेता को बंगाल के सर्वोच्च जनवादी पद पर नहीं बैठना चाहिये। वह वोटरों द्वारा परित्यक्ता है।
हालांकि उनके पार्टीजन जवाहरलाल नेहरु का दृष्टांत पेश कर सकते हैं। इस लोकशाहीवाले सिद्धांत का उल्लंघन तब किया गया था। उनकी कांग्रेस पार्टी के नेता चन्द्रभानु गुप्ता को यूपी का मुख्यमंत्री बनाया। वे दो—दो बार यूपी विधानसभा का चुनाव हार चुके थे। पहली बार तो लखनऊ (पूर्व) से वे मार्च 1957 में कांग्रेस के प्रत्याशी बनकर लड़े थे। तब यूपी सरकार के काबीना मंत्री थे। उन्हें प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बाबू त्रिलोकी सिंह ने हराया था। फिर बुन्देलखण्ड के मौदाहा रियासत की रानी साहिबा राजेन्द्र कुमारी को इन्ही प्रजा सोशलिस्टों ने उपचुनाव में लड़ाया और गुप्ताजी दोबारा हार गये। फिर भी प्रधानमंत्री नेहरु ने गुप्ताजी को नामित कर दिया। संपूर्णानन्द की जगह यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी। ऐसे कई उदाहरण कांग्रेस इतिहास से कई मिल जायेंगे। मगर प्रश्न रहेगा कि जनवादी सिद्धांत के अनुसार एक पराजित प्रत्याशी को मुख्यमंत्री बनना चाहिये? ममता से यही सवाल है, सदाचार के आधार पर।
अब कई निष्णात और ज्ञानीजन टीएमसी के पक्ष में अभूतपूर्व चुनावी चित्र रंग रहे हैं। उन्हें ताजा आंकड़े भी देखना चाहिये। मतदान का गणित स्पष्ट हो जायेगा। ममता की पार्टी को पश्चिम बंगाल की विधानसभा में 2011 के चुनाव में 184 सीटें मिलीं थीं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साढ़े तीन दशक के राज का उन्होंने खात्मा किया था। फिर पिछले 2016 के चुनाव में तृणमूल के 211 विधायक रहे। कल के परिणाम में उन्हें 217 सीटें मिलीं हैं। पांच वर्षों में मात्र सात—आठ विधायक ही बढ़े हैं। वोट प्रतिशत भी 48 था जो 2016 की तुलना में मात्र पांच फीसदी ज्यादा था। तो क्या करिश्मा कर दिखाया ?
ममता ने निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर आरोप लगाया कि तीन रिटायर्ड सरकारी नौकर सदस्य नामित होकर मतदान का निर्णय करेंगे? तो इस बांग्ला राजनेता ममता बनर्जी के को याद दिला दिया जाये कि उनकी पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राज में भारत के प्रधान न्यायाधीश थे सुधिरंजन दास, उनके दामाद थे नेहरु काबीना के कानून मंत्री अशोक कुमार सेन। उनके सगे भाई थे सुकुमार सेन जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे। तीनों उच्च सरकारी पद एक ही कुटुम्ब में सीमित था। तब केवल राममनोहर लोहिया ने इस घृणास्पद वंशवाद का मसला उठाया था।
अखबारों की आज सुखियां हैं कि ममता के रुप में भारतीय प्रतिपक्ष को एक सर्वमान्य राष्ट्रस्तरीय पुरोधा मिल गया। वही पुरानी पत्रकारी अतिशयोक्ति। भला जो महिला बंगाल को ही राष्ट्र माने, उसे भारत से भी बड़ा समझे, क्या वह मलयाली, नागा, लदृाखी, पंजाबी आदि विविध राजनेताओं का समर्थन कभी हासिल कर पायेंगी ? ऐसी क्षेत्रवादी प्रवृत्ति का नेता बस एक प्रदेश का होकर रह जाता है। समूचे भारत का कभी नहीं। बंगपुत्री ममता बनर्जी हुगली तट और बंगाल की खाड़ी के मध्यस्थल को ही अपनी दुनिया मानती है। याद आता है रेलमंत्री के पद पर रहते जब ममता बनर्जी बजाये रेल भवन मुख्यालय के, सियालदह स्टेशन से राष्ट्र के रेल के चलाती थीं। गोमुख से चली पवित्र भागीरथी बहते—बहते कोलकता पहुंचते हीं गंदली हुगली बन जाती है। फिर गंगासागर में समुद्र में गिरती है। मगर ममता इस गंगा को सिर्फ हुगली ही मानेंगी क्योंकि वह उनके राज्य में बस इतना ही भाग गंगा का बहता है। तो क्या ऐसी संकीर्णदिल महिला भारत की पीएम लायक होंगी?
K Vikram Rao
Email: k.vikramrao@gmail.com
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