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परदे पर उतरेगी 15 बरसों के जज्बात की कहानी


मेघना बोलीं- ‘लिखने की हिम्मत जुटाने में लग गए आठ साल’


मुंबई, 22 मार्च 2022 : ‘मर्द को दर्द नहीं होता’, या फिर ‘क्या लड़कियों की तरह रो रहा है’, ये ऐसे जुमले हैं जो लड़कों के बीच अक्सर संवाद का हिस्सा बनते हैं। लेकिन, किसी रिश्ते में अक्सर मर्द की बात कम ही सुनी जाती है। दिल्ली की फिल्ममेकर दीपिका नारायण भारद्वाज की फीचर लेंथ डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज सन्स’ को देश विदेश में मिल रही चर्चा के बीच अब डिजिटल दुनिया की अव्वल कंपनी पॉकेट एसेस ने भी रिश्तों के बाजार में मर्दों के एहसास हर पल तौले जाने वाले एक किस्से पर फिल्म बनाने का एलान कर दिया है। इसी महिला दिवस पर इसका सूत्रपात हुआ और अब जाकर इसके श्रीगणेश की घोषणा कर दी गई है।

पॉकेट एसेस ने ये फिल्म अपनी लॉन्ग फॉर्म वीडियो कंपनी डाइस मीडिया के बैनर पर बनाने की योजना बनाई है। फिल्म की पटकथा लिखनी शुरू की है चर्चित लेखक मेघना पंत ने जिनके अपने ही उपन्यास ‘ब्वॉयज डोंट क्राई’ पर ये फिल्म आधारित होगी। मेघना पंत बताती हैं, ‘महिला दिवस पर हमने इस पर चर्चा शुरू की थी। ‘ब्वॉयज डोंट क्राई’ मेरे लिए सिर्फ एक किताब नहीं है। ये मेरे जीवन के उन 15 बरसों की कहानी है जिन्हें लिखने का साहस जुटाने में मुझे आठ साल लग गए। मेरे हिसाब से लड़कियों को दिल और दिमाग के मामलों में समझाने के लिए ये किसी रूल बुक से कम नहीं है।’

उपन्यास ‘ब्वॉयज डोंट क्राई’ पर बनने जा रही इस फिल्म से और क्या उम्मीद करनी चाहिए? इस पर मेघना का कहना है, ‘आधुनिक हिंदुस्तानी शादियों में दरवाजों के पीछे क्या होता है, ये एक तरह से उसमें झांकने की कोशिश है। ये मानसिक स्वास्थ्य पर एक संवाद भी है जो मेरे हिसाब से हर परिवार में होना ही चाहिए। मनोरंजनक, रोचक और दिलचस्प होने के साथ साथ ये फिल्म मैं चाहती हूं कि इस संवाद को और आगे ले जाए। मेरा विश्वास है कि इस फिल्म को देखने के बाद हर दर्शक अपने भीतर बदलाव महसूस जरूर करेगा।’ मेघना पंत का ये उपन्यास ‘ब्वॉयज डोंट क्राई’ अभी जनवरी में ही बाजार में आया है। आते ही इस किताब ने ढेरों तारीफें लूटी हैं। लिटरेचर फेस्टिवल में तालियां बटोरी हैं और अमेजन पर भी ये बेस्टसेलर बन चुकी है।

इस किताब पर फिल्म बनाने जा रही कंपनी पॉकेट एसेस की सीईओ अदिति श्रीवास्तव कहती हैं, ‘पहली बार जब मुझे ये किताब मिली तो मुझे तभी समझ आ गया था कि यही वह कहानी है जो डाइस मीडिया को को बड़े परदे पर कहनी है। घरेलू हिंसा और शोषण पर वैसे तो तमाम फिल्में बन चुकी हैं लेकिन इस उपन्यास की कहानी हमें लीक तोड़ने की हिम्मत देती है और शादी के पूरे समीकरण को एक दूसरे नजरिये से देखने की कोशिश करती है। यहां नायिका अबला नारी नहीं है। वह आधुनिक है। काम करती है। और, ऊपर से सामान्य दिखती एक शादी में आर्थिक रूप से आजाद भी है। इस कहानी में सब कुछ काला सफेद नहीं है। ये भावनाओं का ऐसा ज्वार भाटा है जो किताब के पन्नों में उबल रहा है और सिनेमा के परदे पर फैल जाने के लिए बेताब है।’
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