वाराणसी, 18 अगस्त 2023 : पांच बार चुनाव जीत कर पूरे दो दशक विधायक और प्रदेश सरकार में एक बार राज्य मंत्री रहे अजय राय का परिवार मूल रूप से गाजीपुर के मलसा गांव के साथ ही तीन पीढ़ियों से बनारस से भी जुड़ा रहा और लहुराबीर में आवासित है। उनका जन्म बनारस में ही सात अक्तूबर, 1969 को सुरेन्द्र राय के पुत्र के रूप में हुआ। उनके बड़े पिता नारायण राय बनारस जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। बड़े भाई स्व.अवधेश राय भी कांग्रेस से ही जुड़े थे, लेकिन अजय राय ने उनकी हत्या के बाद भाजपा के साथ राजनीति शुरू की।
अजय राय 27 वर्ष की उम्र में ही भाकपा के कद्दावर नेता एवं नौ बार के विधायक स्व.ऊदल के साथ ही अपना दल अध्यक्ष स्व.सोने लाल पटेल को भी हराकर 1996 में विधान सभा की सदस्यता बनारस जिले के तत्कालीन कोलसला एवं वर्तमान पिण्डरा विधानसभा क्षेत्र से अर्जित की। उसके बाद वह 2002 एवं 2007 में भी बीजेपी टिकट पर जीते, लेकिन 2009 में पार्टी का लोकसभा टिकट तय होने के बाद भाजपा छोड़ सपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े और मुरली मनोहर जोशी एवं मुख्तार अंसारी के बाद तीसरे नंबर पर रहे। सपा उन्हें रास नहीं आई और अपने इस्तीफे से रिक्त विधानसभा सीट पर निर्दल उम्मीदवार के रूप में लड़े और एक बार फिर चर्चित जीत दर्ज की। जीतने के बाद उन्होंने अपने परिवार की पुरानी परम्परागत पार्टी कांग्रेस का रुख किया। प्रभारी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उनके घर गये।
वह कांग्रेस से जुड़कर कांग्रेस विधायक दल के सम्बद्ध सदस्य बन गये। पांचवीं बार लगातार अपना विधानसभा चुनाव उन्होंने 2012 में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में लड़ा और जीत दर्ज कर लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस की झोली में कोई विधान सभा सीट डाली। कांग्रेस ने अजय राय के जमीनी संघर्ष की राजनीति के चलते उनको 2014 में प्रधानमंत्री पद के बीजेपी के घोषित चेहरे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वाराणसी संसदीय सीट पर उम्मीदवार बनाया। तमाम दबावों की चिन्ता छोड़कर लड़े अपने उस चुनाव में उन्होंने कड़ी हार के बावजूद पूरा राजनीतिक फोकस अपनी ओर खींचने में कामयाबी हासिल की। नाराज सपा सरकार और केन्द्र में पदारूढ़ भाजपा के वह निशाने पर रहे। संतों के एक प्रतिकार आन्दोलन में उन्हें गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल में डाल कर उन पर रासुका आमद कर दिया गया, जबकि भाजपा सहित कई दलों के नेता उस आंदोलन में थे। बाद में वह हाईकोर्ट से बाइज्जत बरी हुये। 2014 का चुनाव लड़े अरविंद केजरीवाल भले कभी बनारस नहीं लौटे, लेकिन अजय राय निरन्तर आन्दोलनात्मक संघर्ष की राजनीति से बनारस में लगातार सक्रिय रहे।
अतः राजनीतिक दबाव का टारगेट भी बने रहे। प्रधानमंत्री के विरुद्ध न केवल 2019 का लोकसभा चुनाव पुनः लड़े एवं हारे, बल्कि उससे पहले 2017 का और उसके बाद 2022 का विधान सभा चुनाव भी हारे। फिर भी कांग्रेस के साथ अविचल रह राजनीतिक संघर्षों के साथ पूरी तरह राजनीतिक फोकस अपनी ओर बनाये रखा। फलत: 2022 के चुनाव के बाद कांग्रेस ने उन्हें 12 पूर्वी जिलों की प्रान्तीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और उस भूमिका में वह सभी छ: प्रांतीय कमेटियों में सर्वाधिक सक्रिय माने गये। परिणामस्वरूप कांग्रेस आलाकमान ने एक वर्ष बाद ही उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपने का फैसला लिया है। इससे पूर्व अपने बड़े भाई की हत्या के केस को पूरी निर्भीकता से लड़ने की पैरोकारी के चलते पहली बार वह पूर्व विधायक अंसारी को किसी केस में सजा दिलाने में कामयाब हुये, जिसकी खांसी चर्चा रही।
उल्लेखनीय है कि वाराणसी से जुड़े नेताओं में पं.कमलापति त्रिपाठी के बाद पहली बार किसी नेता को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में पूरे प्रदेश की कांग्रेस की कमान संभालने का मौका मिला है। तब और अब की कांग्रेस के हालात में जमीन और आसमान का अंतर है। आज कांग्रेस पराभव की पराकाष्ठा उत्तर प्रदेश में पार कर चुकी है। अजय राय पर कांग्रेस को प्रदेश में फिर खड़ा करने की अपूर्व चुनौती का भार आया है, क्योंकि अब कांग्रेस को खोने के लिये यहां कुछ भी नहीं बचा है। एसी स्थिति में कांग्रेस का परम्परागत गौरव वापस दिलाने में अपनी मेहनती, लगनशील और जमीनी संघर्ष की राजनीति से जुड़ी पहचान रखने वाले अजय राय कुछ सकारात्मक कर पाते हैं, तो राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि उससे उनका राजनीतिक कद और उठना लाजिमी होगा।
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