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लखीमपुर मामला – मरे तो आठ लोग हैं फिर चर्चा सिर्फ चार की क्यों ? लाशों पर राजनीति का तरीका समझिए


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लखीमपुर खीरी में आठ लोगों की जान गई। मरने वालों में किसान भी हैं और वो भी हैं जिन्हें किसानों ने जान से मार दिया।


चर्चा सिर्फ किसानों की मौत की हो रही है, उनके परिवारों की हो रही है, किसान आंदोलन की हो रही है।

क्या जिन लोगों की जान किसान आंदोलन करने वाले किसानों ने ली उनकी जान का कोई मोल नहीं है या उनके परिवार नहीं हैं या भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इतने दबाव में है कि उसे अपने कार्यकर्ताओं की जान का हिसाब मांगने के लिए मुंह कम पड़ रहे हैं।


लखीमपुर का मामला जितना सामने से दिखाई दे रहा है उससे कहीं ज्यादा खेल पीछे चल रहा है। आपको इस पूरे मामले की एक एक हकीकत बताते हैं।


कौन मरे और कितने मरे

  1. लवप्रीत सिंह – किसान

  2. नक्षत्र सिंह – किसान

  3. गुरुविंदर सिंह – किसान

  4. दलजीत सिंह – किसान

  5. शुभम मिश्रा – पत्रकार

  6. हरिओम मिश्रा – भाजपा समर्थक

  7. रमन कश्यप – बीजेपी समर्थक

  8. श्यामसुंद निषाद – बीजेपी समर्थक



अब सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि किसानों की मौत पर देश-प्रदेश के तमाम राजनीतिक दल, दलों के नेता, किसान नेता, मुआवजे से लेकर, सरकारी नौकरी, एफआईआर, पोस्टमार्टम रिपोर्ट हर बात पर लामबंद हैं, बवाल हो रहा है लेकिन एक पत्रकार और तीन बीजेपी समर्थकों की मौत पर कोई बोल क्यों नहीं रहा।


स्पष्ट है कि बीजेपी की सरकार और पार्टी यहां भी चूक रही है। गले की फांस ऐसी फंसी है कि सीधे केंद्रीय गृहराज्य मंत्री से जुड़े इस मामले में बीजेपी खुलकर यह तक नहीं कह पा रही कि अगर किसान मरे तो किसानों ने ही हत्याएं भी की हैं। उसका हिसाब-किताब कौन करेगा।




चूंकि पूरा मामला मंत्री और मंत्री के बेटे के इर्द-गिर्द घूम रहा है इसलिए अपनी कुर्सी और बेटे को बचाने की ही पूरी कवायद चल रही है।


इस चक्कर में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दम भरने वाली बीजेपी के समर्थकों की उसकी नजर में क्या कीमत है ये स्पष्ट होना चाहिए। या फिर राज्य और केंद्र में चूंकि बीजेपी की सरकार है इसलिए उसके समर्थकों की मौतें हत्या नहीं मानी जाएंगी।


दूसरी तरफ किसानों को देश का अन्नदाता बताकर उनके आंदोलनकारियों को क्या हत्या करने की खुली छूट दे दी गई है। क्या आंदोलन करने वाली भीड़ चलती गाड़ियों को रोक कर अराजकता की पराकाष्ठा पार करते हुए चार लोगों को लाठी-डंडों से मार डाले तो भी चुप रहा जाए। ये कैसे किसान हैं और ये कैसा आंदोलन हैं।


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अब इस पूरे मामले का एक और पहलू समझिए –


मरने वालों में जिन्हें किसान बताया जा रहा है गौर कीजिए वो सभी सिख समुदाय से हैं। दूसरी तरफ जो अन्य चार मरे हैं उसमें दो ब्राह्मण, एक कश्यप और एक निषाद है।


क्या उत्तर प्रदेश समेत पूरे भारत में इन समुदायों के लोग किसान नहीं हैं?


क्या ब्राह्मण सम्मेलन करने वाले राजनीतिक दलों को अब ब्राह्मण की मौतों पर अफसोस नहीं हो रहा है


क्या निषाद समाज का वोट हासिल करने के लिए निषाद पार्टी बनाने वाले और निषाद समुदाय के नेताओं से गठबंधन करने वालों को एक निषाद की मौत नहीं दिख रही। या उसका भाजपाई होना उसकी मौत पर खामोशी का पर्याप्त कारण है।


और जो कश्यप की जान गई, उनके लिए कौन खड़ा होगा।


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जातीय गोलबंदी से बड़ा वोटचंक है “किसान” शब्द


दरअसल वोटबैंक की राजनीति में गरीब, किसान, मजदूर जैसे तबके वोटों का बड़ा समूह बनाते हैं। इसमें अलग अलग जाति और धर्म समाहित हो जाते हैं। खासतौर से भारत के ज्यादातर शहरी लोगों की जड़ें भी ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हैं इसलिए “किसान” देश का बहुत बड़ा वोटबैंक हैं।


इन तबकों के बाद जाति धर्म के आधार पर वोटबैंक बनता है। जिसमें हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकरण सबसे कारगर और तीव्र है।


इसके बाद जातीय गोलबंदी के जरिए वोट हासिल किए जाते हैं जिसमें छोटी-बड़ी जातियों के अलावा उपजातियों के नाम पर भी राजनीतिक दल और उसके नेता पूरे भारत में पाए जाते हैं।


हैरानी तो तब हो रही है कि एक पत्रकार की मौत पर मीडिया ने ऐसे चुप्पी मारी है जैसे वो कभी था ही नहीं। छोटे बड़े मीडिया हाउस टीआरपी, सरकार और राजनीतिक दलों के फंदे में अपनी बिरादरी वाले की मौत पर चुप हैं। एक सवाल पूछने तक की जहमत नहीं उठाई गई कि उस पत्रकार के पास कहीं कोई ऐसी क्लिप या जानकारी या फुटेज तो नहीं थी जो इस पूरे घटनाक्रम की महत्वपूर्ण कड़ी बन जाती।


जिस तरह लखीमपुर की घटना एक केंद्रीय मंत्री से जुड़ी और मसला किसानों का हुआ तो सिर्फ उत्तर प्रदेश नहीं देश के राजनीतिक दलों ने मौका लपकने के लिए एड़ी चोटी एक कर दी।


ये किसी इंसाफ की लड़ाई नहीं। ये किसानों का आंदोलन भी नहीं अगर होता तो किसान के नाम पर जो मरे वो सब एक ही समुदाय के क्यों हैं। उत्तर प्रदेश तो जातीय और इलाकाई गोलबंदी का सबसे बड़ा केंद्र है फिर दूसरे पक्ष के लिए आवाज क्यों नहीं उठ रही।


दरअसल किसान के नाम पर वोट बटोरने के लिए उन्हें भुक्तभोगी बताकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों हमदर्दी जता सकते हैं लेकिन ऐसे किसान जो आंदोलन की आड़ में किसी की जान ले डालें उन्हें हत्यारा नहीं कहा जा सकता।


ये शुद्ध रुप से लाशों पर सियासत का नंगा सच है जिसे हर राजनीतिक दर अपनी तरह से खेल रहा है।


टीम स्टेट टुडे



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