के. विक्रम राव
दो राज्यों (पंजाब और उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्रियों में विवादग्रस्त बयानबाजी (15 मई 2021) हुयी। नतीजन पंजाब की एक शांत, सशुप्त नगरी सुखियों में आ गयीं। संपादकजन भी खोजने लगे कि आखिर यह मालेरकोटला है क्या बला ? इस नगरी पर कांग्रेसी नेता कप्तान अमरेन्द्र सिंह और भाजपायी पुरोधा योगी आदित्यनाथ जी टकरा गये। यह संगरुर जनपद का एक कस्बा था। ईद के पर्व (14 मई 2021) पर मुख्यमंत्री कप्तान अमरेन्द्र सिंह ने उसे पंजाब का तेइसवां जिला बना दिया। यह सीमावर्ती मुस्लिम—बहुल जनपद है। मुसलमानों को त्यौहारी दे दी कांग्रेस शासन ने। इस पर योगीजी ने संविधान का सवाल उठाया कि मजहब के आधार पर जिला निर्मित करना फिरकापरस्ती है। यह पंथनिरपेक्ष संविधान की भावना के प्रतिकूल है। तो अमरेन्द्र सिंह ने हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए जवाब दिया कि भाजपा विभाजक नीति अपनाती है। योगीजी ने कांग्रेस द्वारा तुष्टिकरण की इसे नयी हरकत बताया। केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने भी मल्लपुरम नाम मुस्लिम जिला बनाया था। तब कांग्रेस द्वारा आलोचना हुयी थी।
यूं भी दोनों मुख्यमंत्रियों के बीच संबंध यूपी के बसपाई विधायक मियां मोहम्मद मुख्तार अंसारी को माफियागिरी के अपराध पर यूपी जेल में लाने की वजह से खट्टे हो गये थे। राहुल गांधी के संकेत पर अमरेन्द्र सिंह ने इस हत्यारे माफिया को रोपड़ जेल में ऐशोआराम से मेहमान बनाये रखा था। योगीजी अपने अपराध—विरोधी अभियान के तहत गाजीपुर के इस माफिया आतंकवादी को यूपी जेल में लाकर अपना कानूनी दायित्व निभाया है। उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मुख्तार अंसारी को बांदा की जेल में लाया गया।
तो माफिया मुख्तार के बाद अब लखनऊ तथा चंडीगढ़ के दरम्यान मालेरकोटला नगर के कारण भृकुटी तन गयी है। दो राष्ट्रीय पार्टियों के पुरोधाओं की बहस से हटकर एक सामान्य शहर जनविवाद का विषय बन जाये, यह एक अजूबा है।
संगरुर जिले का यह मुस्लिम—बहुल इलाका मालेरकोटला के नाम से मुगलकाल से ही प्रसिद्ध रहा। मान्यता है कि हिन्दुओं से यहां के मुसलमान बेहतर भारतभक्त हैं। पाकिस्तान सीमा (वागा) यहां से 170 किलोमीटर है। पर 1947 में यहां की मुस्लिम जनता ने हिन्दू—बहुल भारत का ही केवल कस्बा रहना पसंद किया। मोहम्मद अली जिन्ना के पृथक इस्लामी कौंम के सिद्धांत को सिरे से उसने नकार दिया। यहां आजादी के बाद से आजतक कभी भी कोई भी दंगा नहीं हुआ। एक बार (28 जून 2016) कुरान की अवमानना हुयी थी तो मुस्लिम नागरिकों ने उसे आयातीत लोगों की करतूत बताकर खारिज कर दिया। केवल आठ लोग घायल हुये थे। अब अचरज से लोग सवाल करते हैं कि आखिर मालेरकोटला जब मुस्लिम बहुल था तो पूर्वी पंजाब में क्यों बना रहा, जबकि अधिकांश भूभाग पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) में चला गया। गौरतलब बात भी है। तुलानात्मक दृष्टि से मालेरकोटला से लाहौर का फासला लखनऊ से गोरखपुर से भी कम है। केवल 210 किलोमीटर।
इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान बनते ही आबादी के अनुपात में मालेरकोटला का भी ब्रिटिश साम्राज्यवादी विभाजन के नियम के तहत पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में विलय हो जाता। पर वहां के मुसलमानों ने कहा कि वे आर्य थे, बाद में मुसलमान बने, मगर नस्ल से रहे तो पठान। अत: पंथनिरपेक्ष भारत में ही रहेंगे।
पाकिस्तान में शामिल होने से सख्त विरोध का कारण मालेरकोटला के लिए ऐतिहासिक है। जालिम मुगल बादशाह आलमगीर औरंगजेब ने 1709 में सिखों के दशम गुरु गोविन्द सिंह के दोनों अबोध पुत्रों नौ—वर्ष में साहिबजादा जोरावर सिंह और सात—वर्ष के साहिबजादा फतेह सिंह को ईंट से चुनवा दिया था। दोनों ने कलमा पढ़ने और इस्लाम कबूल करने से इनकार कर दिया था। इस बलिदान के समय बादशाह के साथी और मालेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान ने इस मुगलिया अमानुषिकता का पुरजोर विरोध किया था। वे बोले कि ऐसी हत्या करना कुरान तथा इस्लाम का उल्लंघन है। मगर सरहिन्द के सूबेदार वजीर खान ने दोनों गुरुपुत्रों को तड़पाकर मार ही डाला। जब गुरु गोविन्द सिंह को ज्ञात हुआ कि नवाब शेर मोहम्मद ने मुगल बादशाह का विरोध कर सल्तनत से अपने को अलग कर लिया तो उन्होंने मालेरकोटला पर अपनी दैवी कृपा दर्शायी। सिख गुरु बोले कि ''मालेरकोटला हमेशा शांत और विकासशील क्षेत्र रहेगा।'' तबसे यहां के सत्तर फीसदी मुसलमान, दस प्रतिशत सिख तथा बीस प्रतिशत हिन्दू एक कुटुम्ब की भांति रहते आ रहे हैं। आज भी ऐसा ही नजारा है।
अगर यहीं भावना भारत के अन्य हिन्दीभाषी राज्यों में होती तो इतना रक्तरंजित इतिहास वाला विभाजन कभी नहीं होता। इस्लामी कट्टरता तो मालेरकोटला को छू तक नहीं पायी।
मालेरकोटला के श्रमजीवी पत्रकारों का भी नजरिया भी बहुत पंथनिरपेक्ष वाला रहा। इसका प्रमाण हमें मिला 1989 में जब अमृतसर में हम लोगों ने अखिल भारतीय अधिवेशन किया था। इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नालिस्ट्स (IFWJ) की राष्ट्रीय परिषद का सम्मेलन था। अवसर था गांधी जयंती का, 2 अक्टूबर 1989, जब स्वाधीनता सेनानी डा. सैफुद्दीन किचलू के स्मारक से जालियांवाला बाग तक हमारे पैदल मार्च का आयोजन था। तब आतंकवाद के चरम पर पंजाब था। मालेरकोटला की हमारी जिला श्रमजीवी पत्रकार यूनियन का प्रतिनिधि मंडल भी वहां आया था। देशभर से आये सात सौ प्रतिनिधि साथियों ने शिरकत की थी। सम्मेलन भव्य था। वहां दंगा—पीड़ित प्रदेश कर्नाटक, केरल तथा गुजरात के प्रतिनिधियों को पहली बार मालेरकोटला के अनूठी पंथनिरपेक्ष मुस्लिम सौहार्द का परिचय मिला। अद्भुत था। यह सम्मेलन था भी विशेष। रेल मंत्री जार्ज फर्नाडिस ने अमृतसर के लिये आईएफडब्ल्यूजे प्रतिनिधियों हेतु विशेष रेल चलवायी थी। तब मंडल—विरोधी आन्दोलन से भारत जल रहा था। अंबाला स्टेशन दंगों से पंगु हो गया था। पर प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने प्रयासों से खास प्रबंध कराये। आतंक पर हमारे शांति मार्च का मुफीद प्रभाव पड़ा। इसीलिये अमृतसर अधिवेशन आज भी यादगार है क्योंकि तब मालेरकोटला सरीखे पंथनिरपेक्षता के द्वीप से दंगाग्रस्त भारत में हम सबका विशद् परिचय हुआ। साबका पड़ा।
फिर मालेरकोटला के सहाफी प्रतिनिधि मंडल से देशभर के आईएफडब्ल्यूजे साथियों की 1995 में पुद्दुचेरि सम्मेलन में मुलाकात हुयी। सिख—बहुल पंजाब वर्किंग जर्नालिस्ट्स यूनियन के साथ मालेरकोटला की पत्रकार राशीदा भी थीं। ओजस्वी वक्ता रहीं।
मालेरकोटला के लब्धप्रतिष्ठित नागरिक दुनियाभर में फैले हैं। बाबी जिन्दल अमेरिका राज्य लूसियाना के गवर्नर रहे। अभी राष्ट्रपति जोई बाईडेन के साथ उनकी पार्टी के नेता हैं। कलाकार सईद जाफरी भी यहीं के है। यहां से कांग्रेसी विधायक है रजिया सुलतान। इनके पति राज्य के पुलिस डीजीपी है।
फिलहाल मालेरकोटला जैसे शहर की संस्कृति को यदि अधिक फोकस किया जाये तो भारत के अन्य तनावयुक्त क्षेत्रों में बसे मुसलमान भी अनुप्राणित होंगे कि वैमनस्य और संकीर्णता से प्रगति नहीं होती है। मालेरकोटला के विकास की गति सामंजस्य के कारण त्वरित रही। यही एहसास सबको होना चाहिये।
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