के. विक्रम राव, (वरिष्ठ पत्रकार) : राजद्रोह कानून (124 : ए—भारतीय दंड संहिता) के बखानने से राजग सरकार की सियासी किरकिरी तथा बौद्धिक फजीहत हो जाती। अपने परिष्कृत मंतव्य तथा विवेकाधारित कदम से बचाव करने में नरेन्द्र मोदी सरकार उच्चतम न्यायालय में मर्यादित हो गयी। छवि बिगड़ी नहीं। सलाखों के पीछे से सत्ता पर आने वाली राजग सरकार द्वारा नागरिक हकों का हनन अक्षम्य हो जाता। नेहरु—इंदिरा काबीनाओं द्वारा ऐसी जन—विरोधी कृतियां की जाती रहीं। एमर्जेंसी (1975—77) उसकी चरम बिन्दु थी। मोदी तब स्वयंसेवक थे। गुजरात में राजद्रोह के अपराधियों को जेल में राहत पहुंचाना उनके जिम्मे था। बड़ौदा सेन्ट्रल जेल के तन्हा कोठरी में मुझ पत्रकार को दैनिक अखबार पहुंचाने का काम इस स्वयंसेवक ने निभाया था। मछली को पानी की भांति, पत्रकार के लिए समाचारपत्र होते हैं। मुझ फांसी की सजा पाने वाले कैदी की यातना यह युवा जानता था।
तो फिर उनकी सरकार ने इस राजद्रोह कानून, जिसे बर्तानवी हुकूमत ने आजादी के दीवानों का दमन कराने हेतु रचा था, को क्यों लागू करना चाहा? बालगंगाधर तिलक तथा बापू (गांधीजी) इसके पहले शिकार थे। अंबेडकर ने इसे संविधान की धारा (124—ए) बना दिया था।
इसी विषय पर अपना खेदजनक अचंभा व्यक्त करते हुये न्यायमूर्ति नूतलपाटि वेंकटरमण ने गत दिवस उच्चतम न्यायालय में पूछा भी था कि ऐसे अहितकारी काले कानून के औपनिवेशिक बोझ को आजादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष में यह सरकार क्यों ढोना चाहती है? तेलुगुभाषी श्रमजीवी पत्रकार से प्रधान न्यायाधीश बना इस जज ने 1975 में आपातकाल का विरोध किया था तथा भूमिगत हो गया था। राजद्रोह के कानून पर वेंकटरमण बोले : ''एक बढ़ई को टहनी काटने हेतु आरा दिया गया, तो वह सरा जंगल ही काटने पर आमादा हो गया।'' इस पर सरकारी वकील ने तत्काल बहस को स्थगन करने की याचना की। मोहलत मांगी बताया कि मोदी सरकार उत्तर में परिमार्जित प्रपत्र दाखिल करेगी।
मगर इतने से ही पर्याप्त भरपायी नहीं होगी। मोदी सरकार को तहकीकात करानी होगी कि राजग शासन कैसे ऐसे जनविरोधी, नृशंस कानून के पक्ष में चली गयी? आखिर यह सोनिया—कांग्रेस की सरकार तो नहीं है जो सास के आपातकाल का बचाव करे? मोदी सरकार में करीब 1500 ब्रिटिश काले कानूनों का गत वर्षों में खात्मा किया गया है। फिर यह 124 (ए) धारा क्यों बरकरार है? विधि मंत्री किरण रिजिजू, उनके विधि सलाहकार तथा आला अफसरों से जवाब—तलब किया जाये। विश्वपटल पर मोदी सरकार की लोकतांत्रिक छवि को साजिशन धूमिल किया गया है।
यहां मोदी सरकार के 90—वर्षीय महाधिवक्ता (एटार्नी जनरल) के.के.(कोट्टायम कातटनकोट) वेणुगोपाल पर भी सवालिया निशान लगते हैं। वे सुप्रीम कोर्ट का मंतव्य भांप गये थे कि इस संवैधानिक धारा के दुरुपयोग पर तीन जजवाली पीठ आशंकित हैं। फिर वेणुगोपाल क्यों जिरह कराते रहे? उन्होंने तो यहां तक कोर्ट में कह डाला था कि : ''केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार (पटना हाईकोर्ट 1962)'' का निर्णय ही मान्य है। इस फैसले से धारा 124 (ए) द्वारा अभिव्यक्ति के आधार को संकुचित किया गया है। उसे प्रहार का औजार बनाया गया था। केदारनाथ सिंह बेगूसराय (बिहार) के फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे जिन्होंने कांग्रेसी शासकों को जंमीदारों तथा सरमायेदारों का गुर्गा कहा था। इसी भांति 1954 में डा. राममनोहर लोहिया बनाम यूपी सरकार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को संपूर्णानन्द सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। डा. लोहिया को गुलाम भारत के विशेष अधिकार कानून 1932 के तहत कैद किया गया था। रिहा करना पड़ा। विशेष कानून अधिकार एक्ट को उच्च न्यायालय ने अवैध करार दिया था। इसके विरुद्ध अपील भी उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दी थी।
सत्ता के विरोध करने के इस जनवादी अधिकार की मांग के लोहिया वाले प्रकरण पर जिस पीठ ने निर्णय दिया उसमें प्रधान न्यायाधीश कोका सुब्बाराव, न्यायमूर्ति बीपी सिन्हा, न्यायमूर्ति जेसी शाह (दोनों बाद में प्रधान न्यायधीश हुए) तथा न्यायमूर्ति पीबी गजेंद्रगडकर थे। सभी ने लोहिया को मुक्त किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को स्वीकारा। इसीलिये ज्यादा ताज्जुब हुआ कि धारा 124 (ए) जिससे नागरिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात होता रहा, उसकी सजग सरकार पक्षधर रही ?
लोकतंत्र के आराधक नागरिकों को एटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल के स्व. पिताश्री बैरिस्टर में मेलाथ कृष्णन नांबियार का अनायास स्मरण हो आता है। उन्होंने उच्चतम न्यायालय हो केरल के कम्युनिस्ट सांसद एके गोपाला की नेहरु सरकार द्वारा गैरकानूनी गिरफ्तारी के विरुद्ध मुकदमा लड़ा था। मूलाधिकारों की रक्षा हेतु यह आजादी के बाद का पहला अति महत्वपूर्ण मुकदमा था। सोली सोराबर्जा तथा न्यायामूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर के शब्दों में नांबियार का तर्क बड़ा प्रभावी था। नागरिक स्वतंत्रता के पक्ष में सशक्त प्रस्तुतिकरण हुआ था।
इसीलिये आश्चर्य हुआ कि व्यक्तिगत अधिकारों के प्रबल हिमायती नांबियार के पुत्ररत्न वेणुगोपाल धारा—124(ए) ने कैसे पैरवी की होगी? नांबियार 18 दिसम्बर 1975 को निधन हो गया। वे इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा के कठोर आलोचक थे। यदि आज वे होते तो स्वयं धारा—124(ए) को उनके पुत्र वेणुगोपाल द्वारा समर्थन करने पर धज्जियां उड़ा देते।
यहां एक दस्तावेजी ऐतिहासिक घटना का जिक्र कर दूं। भारत के स्वतंत्र होते ही नागरिक आजादी पर प्रहार करने वाले ब्रिटिश कानूनों का कांग्रेस सरकार ने बड़े संवार कर लागू किया। प्रधानमंत्री बनते ही जवाहरलाल नेहरू ने ऐलान कर दिया था कि स्वाधीन भारत में ''सत्याग्रह अब प्रसंगहीन'' हो गया हैं। उनका बयान आया था जब डा. राममनोहर लोहिया दिल्ली में नेपाली दूतावास के समक्ष इस हिमालयी हिन्दू राष्ट्र में लोकशाही के लिये सत्याग्रह करते (25 मई 1949) गिरफ्तार हुये थे। नेपाली वंशानुगत प्रधानमंत्री राणा परिवारवाले लोग नेपाल नरेश को कठपुतली बनाकर जनता का दमन कर रहे थे। ब्रिटिश और पुर्तगाली जेलों में सालों कैद रहनेवाले लोहिया को विश्वास था कि आजाद भारत में उन्हे फिर जेल नहीं जाना पड़ेगा। पर इस सत्याग्रह में उन्हें कैद के पूर्व नयी दिल्ली की सड़क पर अश्रुगैस तथा लाठी चार्ज का भी सामना करना पड़ा था। सविनय प्रतिरोध की कोख से भारत राष्ट्र उसी कोख को जन्में लात मार रहा था।
अतः आजादी के प्रारंभिक वर्षों में ही यह सवाल उठ गया था कि सत्ता का विरोध, सार्वजनिक प्रदर्शन करना और सिविल नाफरमानी क्या लोकतंत्र की पहचान बनें रहेंगे अथवा मिटा दिये जायेंगे? सत्ता सुख लम्बी अवधि तक भोगने वाले कांग्रेसियों को विपक्ष में आजाने के बाद ही (1977) एहसास हुआ कि प्रतिरोध एक जनपक्षधर प्रवृत्ति है। इसे संजोना चाहिए। यह अवधारणा फिर अब विगत सात वर्षों में खासकर उभरी है, व्यापी हैं। जबसे कांग्रेस विपक्ष में आई है। चिंतक स्टुआर्ट मिल ने इसका वैचारिक आधार तथा प्रमाण रचा था जो अकाट्य और अनवरत रहा, जब उन्होंने कहा था कि निन्याबे लोगों को भी यह हक नहीं है कि किसी एक असहमत और भिन्न राय रखनेवाले व्यक्ति पर अपना मत लादें। विरोध का इस उक्ति से बेहतर तर्क नहीं मिलेगा।
ब्रिटेन में शिक्षित जवाहरलाल नेहरु ने सत्ता पाते ही इस सिद्धांत को मार डाला। मोदी को इसे याद रखना होगा। सम्यक पालन करना होगा।
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