सह भी जा, घबरा नहीं, सारी दुख की धूप।
इससे निखरे और भी, इस जीवन का रूप।।
बैठा, आँखों में लिये, उसकी याद समेट।
नर्म धूप के शॉल ने, मुझको लिया लपेट।।
शीतल छाया में दिखा, जब भी प्रिय का रूप।
आँगन में जलने लगी, विकल-निगोड़ी धूप।।
तेज़ धूप में छाँव-सी, लगती उसकी याद।
जिससे अक्सर धूप की, हिलती है बुनियाद।।
धूप कि जैसे सीढ़ियाँ, चढ़े मिले आकाश।
रहो छाँव में पर करो, इसकी सदा तलाश।।
धूप प्रगति का मार्ग है, चलिये रख विश्वास।
लक्ष्य सधेंगे छाँव के, करिये मगर प्रयास।।
घबराना क्या धूप से, यही प्रगति का अंग।
इसमें घुलिये तो ज़रा, देगी नई उमंग।।
अनुभव देती सर्वदा, उजली-उजली धूप।
जिससे निखरे आयु का, नया नवेला रूप।।
यह कैसा जीवन मिला, इसका कैसा रूप।
पग दो पग छाया मिली, मीलों लम्बी धूप।।
सीला जीवन, धूप में, खिलकर दे मुस्कान।
जिससे दुनिया में मिले, एक नई पहचान।।
छाँव ग़ज़ल जो दे सदा, तन्हाई को रंग।
धूप नया सहगान है, भर दे नई उमंग।।
छाँव चाहिये तो रखो, धूप हमेशा पास।
बदलेगी यह धूप ही, जीवन का इतिहास।।
अंग-अंग में धूप है, साँस-साँस में धूप।
यही धूप बदले सदा, इस जीवन का रूप।।
मुझे जगाने रोज़ ही, आती घर में धूप।
किंतु साथ लाये सदा, उर्जित रूप अनूप।।
उसके मन है चाँदनी, जिसके तन पर धूप।
स्वर्णिम उसकी जिंदगी, अनुपम उसका रूप।।
तेरे भाव अनेक हैं, तेरे अनगिन रूप।
तेरी यादें छाँव हैं, तेरे दुख हैं धूप।।
जलती काया धूप है, छाया उसके नैन।
छाया देती चैन तो, धूप करे बेचैन।।
तेरी यादें जिस तरह, सर्दी की हो धूप।
जिसके कोमल स्पर्श से, निखरे मन का रूप।।
धूप लिये फिर आ गयी, गर्मी का अहसास।
पिघली यादें बर्फ़-सी, आँखें हुईं उदास।।
घर का आँगन कह रहा, सुन ओ अंधे कूप।
अपने रहने का पता, देती मुझको धूप।।
-डा.चेतन आनंद
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