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“पुनर्जन्म हो तो हिंदू ही पैदा करना” – महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष



महात्मा गांधी ने सेक्युलर शब्द न कभी कहा और न कही लिखा। वे चाहते थे कि यदि पुनर्जन्म हुआ तो वे हिन्दू ही हों। अपने को संकोच नहीं होता था। फिर भी मनसा, वाचा, कर्मणा बापू अप्रतिम सेक्युलर थे। अल्पसंख्यक उनपर बेहिचक भरोसा करते थे। मुसलमानों के वे अविचल सुहृद थे क्योंकि उनकी दृष्टि में इस्लाम के ये मतावलम्बी मात्र वोटर नहीं थे। खुद उनकी भांति हिन्दुस्तानी थे। हालांकि इतिहास का मान्य यह तथ्य है कि अविभाजित भारत में मुस्लिमों का बहुलांश मियाँ मोहम्मद अली जिन्ना के पीछे था। गांधी और उनके हमराह खान अब्दुल गफ्फार खान तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद को अनसुनी करता था।



इसीलिये वेदना होती है, रोष भी, जब चन्द बहके भारतीय अधकचरी जानकारी के बूते विकृत बातें पेश करते हैं। इससे सेक्युलर राष्ट्रवादी का मन खट्टा होना स्वाभाविक है। मसलन कुछ उग्र हिन्दू कहते हैं कि तुर्की के खलीफा का समर्थन कर गांधीजी ने भारत में इस्लामी फिरकापरस्ती को खादपानी दिया, पोषित किया।



दूसरी तरफ खांटी जिन्नावादी मुस्लिम लीगी हैं जो नारा बुलन्द करते थे पाकिस्तान का और रह गये खण्डित भारत में। आज भी वे बापू के बारे में वही राय रखते हैं जो कभी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि बनिस्बत हिन्दू गांधी के एक मुसलमान उनके ज्यादा अजीज है भले ही वह जारकर्मी पतित क्यों न हो। यह तर्क विकृत है मगर गत सदी के पूर्वार्ध में खूब चला था। आज यह बेतुका है, राष्ट्रविरोधी भी।



आधुनिक संदर्भ में जब हिन्दु-मुस्लिम रिश्तों विषाक्तता बढ़ रही है, यह विश्लेषण करना होगा कि क्या बापू की यह भूल थी कि इस्लामी दुनिया के खलीफ़ा और तुर्की के अपदस्थ सुलतान मोहम्मद चतुर्थ को पुनप्र्रस्थापित करने हेतु खिलाफत आन्दोलन चलाया जाना चाहिए था? इस्तानबुल स्थित ओटोमन खलीफा ने 1774 से रूस से युद्धोपरान्त एक संधि की थी जिससे तुर्की के बाहर बसे मुसलमानों का मजहबी संरक्षक बन गया था। इसके कारण 1880 से भारत के मुसलमानो का भी यह तुर्की सुलतान अब्दुल हामिद द्वितीय खलीफा बन गया था। किन्तु प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी, तुर्की और रूस की ब्रिटेन व अमरीका द्वारा हरा दिये जाने पर तुर्की की सल्तनत खत्म हो गई। अंग्रेजों ने पराजित सुल्तान का खलीफा पद को अमान्य करार दिया। इससे 1920 से 1924 तक भारतीय मुसलमानों ने मौलाना मोहम्मद अली, उनके भाई मौलाना शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डा. मुख्तर अहमद अंसारी, बेरिस्टर मोहम्मद जान अब्बासी आदि के नेतृत्व में भारतीय केन्द्रीय खिलाफत समिति बनाई। जिसने खलीफा को पुनः स्थापित करने हेतु आन्दोलन छेड़ा। गांधी जी इस केन्द्रीय समिति के सदस्य बने और मोतीलाल नेहरू ने उनके कदम का खुला समर्थन किया। मगर मोहम्मद अली जिन्ना ने खलीफा को बचाने का कड़ा विरोध किया। किन्तु गांधी जी के प्रयासों से पहली बार भारत के मुसलमान एकजुट होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। खिलाफत और जंगे आजादी एक सूत्र में बंध गए जिससे अंग्रेजी साम्राज्य डगमगा गया।

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बासठ वर्षों बाद (1857 से) दिल्ली में 23 नवम्बर 1919 के दिन राष्ट्रीय खिलाफत अधिवेशन हुआ। महात्मा गांधी ने सदारत की। मुसलमान प्रतिनिधियों ने गोकशी को प्रतिबंधिता करने की मांग की। मगर गांधीजी ने कहा अभी वे गोहत्या पर चर्चा नहीं करायेगे। क्योंकि इससे हिन्दु जन सौदेबाज लगेंगे। मुद्दा बस यही है कि बर्तानी साम्राज्य को खत्म करना है और खलीफा की पुनस्थापित तथा भारत की आजादी पर संयुक्त अभियान चले। अली बंधु और गांधी जी पूरे देश का साथ दौरा किया। उनकी समस्याओं में मुसलमान और हिन्दू मिलकर तीन नारे बुलन्द करते थे- ”अल्लाहो अकबर, वन्दे मातरम तथा भारत माता की जय।“



गांधीजी की रणनीतिक रचना का इतना जबरदस्त प्रभाव पड़ा कि कराची में (8 जुलाई 1921) दूसरा खिलाफत अधिवेशन हुआ जिसमें शारदापीठ के तेलुगुभाषी शंकराचार्य जगदगुरू भारती कृष्णतीर्थ ने संबोधित किया। उनके साथ डा. सैफुद्दीन किचलू और पीर गुलाम मोजादीद भी मंच पर आसीन थे। महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत संघर्ष में सक्रिय होने के बाद मौलाना मोहम्मद अली जौहर में गजब की वैचारिक तब्दीली आई। एक वर्ष पूर्व मौलाना ने भारतीय मुस्लिम लीग की लंदन इकाई के सुझाव को तिरस्कृत कर दिया था कि मुसलमान तथा हिन्दू मिलकर भारत में ब्रितानी हुकूमत से टक्कर ले। खिलाफत आंदोलन में गांधीजी की क्रियाशीलता से मौलाना अब हिन्दु-मुसलमान एकता के पैराकार बन गए।


उधर मौलाना हसरत मोहानी ने खिलाफत संघर्ष के दौरान ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा। दिल्ली की जामा मस्जिद ईमाम ने स्वामी श्रद्धानन्द का स्वराज पर प्रवचन कराया। अमृतसर में मुसलमान बड़ी तादाद में रामनवमी उत्सव में शामिल हुए। मुस्लिम लीग तथा राष्ट्रीय कांग्रेस के अमृतसर में संयुक्त अधिवेशन (1919) मोतीलाल नेहरू तथा हकीम अजमल खाँ ने संयुक्त अध्यक्षता की। उर्दू में पोस्टर छपे कि महात्मा गांधी का फरमान है कि ब्रितानी राज का विरोध हो। खिलाफत आंदोलन का सर्वाधिक लाभ यह था कि पहली बार वह मुसलमानों की राजनीतिक चेतना में इतना अधिक उभर आया कि वे सब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एकजुट हो गये।


लेकिन खिलाफत आन्देालन का अन्त खुद तुर्की के मुसलमानों ने कर दिया जब क्रान्तिकारी और सेक्युलर राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क ने खलीफा के पद को ही संभाल कर तुर्की को एक गणराज्य करेन का नीति पक्की कर ली थी। पंथनिरपेक्ष गणराज्य घोषित कर दिया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अब गांधीजी की कृतियों, भूमिका और रणनीति पर समग्रता से विचार करें कि आखिर वाटो और शासन करो वाली वर्तानवी नीति का सामना कैसे संभव था। इतना तो तय था कि हिन्दू और मुसलमान अलग रहते तो राष्ट्रीय आंदोलन लंगडा रहता।



प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (मई 1957) के बाद से मुसलमान शनैःशनैः साम्राज्यविरोधी संघर्ष से कटते गये। उनमें दो ही वर्ग रहा। एक था जमींदारों, नवाबों, खान बहादुरों और कठमुल्लों का जिन्दे बर्तानवी शासकों ने सामदाम से अपनी ओर कर लिया था। दूसरा था गुर्बत और जहालत से ग्रसित निम्न वर्ग जिसके लिए आजादी के मायने दो जून की रोटी मयस्सर होना था। ये ऊँचे लोग मजहब के नाम पर लोकतांत्रिक परम्परा को कुचलकर झुण्ड प्रवृत्ति को बढ़ाकर अपनी खुदगर्जी संवार रहे थे। तभी दक्षिण अफ्रीका में सफल जनसंघर्ष द्वारा अश्वेतों और एशिया मूल के लोगों को मानवोचित अधिकार दिलवा कर महात्मा गांधी का भारत आगमन हुआ। चम्पारण सत्याग्रह का प्रथम प्रयाग अभूतपूर्व रूप से सफल हुआ था। इसके पूर्व राष्ट्रीय कांग्रेस केवल ज्ञापन, पैरवी, मिन्नत और विधान मंडली में मनोनयन के प्रयासों को ही आन्दोलन मानती रही। महान विद्रोही लोकमान्य तिलक का निधन हो गया था। रिक्तता आ गई थी। ऐसे समय गांधी जी ने दोनों को साथ पिरोना प्रारंभ किया। मुसलमानेां को साथ जोड़ने का एकमात्र माध्यम था मजहब और सियासत में संबंध स्थापित करना। बस इसीलिए खिलाफत आंदोलन का गांधीजी ने चतुर रणनीतिकार के नाते उपयोग किया। आंदोलन मजबूत हुआ। आज के युग से एक सदी पूर्व चले इस खिलाफत संघर्ष का विश्लेषण करें तो सम्यक और संतुलित मानक अपनाने होंगे। हर दौर का अपने विचार प्रवाह और संस्थागत रूझान होते हैं।