राजनीति में मौलिक चिंतन, मौलिक रणनीति और विपक्ष को चौंका देने वाली आक्रामकता क्या होती है इसका जीता जागता उदाहरण बन चुकी है भारतीय जनता पार्टी। इसके साथ साथ अपनी लकीर को बनाना और उस लकीर को लंबा करते जाना ये भारतीय जनता पार्टी की आदत बन चुकी है।
2014 में मथ दिया उत्तर प्रदेश
वो 2013 का साल था जब अमित शाह को लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया था। रसातल में पड़ी पार्टी कई खांचों में बटीं थी। पार्टी के पास उस दौर में भी राष्ट्रीय फलक के कई नेता उत्तर प्रदेश में मौजूद थे। प्रादेशिक स्तर पर भी अपना प्रभाव रखने वाले नेता थे परंतु सबसे बड़ा सिरदर्द उन्हें एक सूत्र में पिरोने का था।
हार्डमास्टर अमित शाह को जैसे ही यूपी का प्रभार मिला एक झटके में पूरी पार्टी एक लाइन में खड़ी हो गई। जिम्मेदारियां बांटीं गईं। जवाबदेही तय हुई। चुनाव में जीत और सिर्फ जीत का लक्ष्य तय हुआ। इसके बाद खुद अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की एक एक विधानसभा, हर विधानसभा का एक एक बूथ , हर बूथ की एक एक गली और हर गली के एक एक कार्यकर्ता को इस तरह मथ दिया कि 2014 के चुनावी नतीजों का जो मक्खन बाहर निकला उसने हर इतिहास को बौना साबित कर दिया। उस वक्त का वर्तमान इतना बड़ा है कि उसके आगे भविष्य भी लंबे समय तक बीता हुआ कल ही साबित हो रहा है।
2017 में अमित शाह ने लंबी की लकीर
बात सिर्फ यहीं पर खत्म नहीं होती। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की साख एक बार फिर दांव पर थी। प्रदेश के 80 में से 73 संसदीय सीटों पर जीत का परचम लहराने वाली बीजेपी को इस हिसाब से कम से कम 350 विधानसभा सीटों पर जीत मिलनी चाहिए थी।
अमित शाह 2017 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। प्रदेश की बागडोर केशव प्रसाद मौर्या के पास थी। दूरदर्शी अमित शाह के अनुभव का लाभ उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी यूपी के छोटे-छोटे स्थानीय राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किया। मायावती के दलित वोटबैंक में जाटव समाज और पिछड़ा वर्ग में यादवों को छोड़कर तमाम स्थानीय क्षेत्रीय राजनीतिक दल बीजेपी के साथ आ गए। इसके बाद एक बार फिर चुनावी नतीजों ने बता दिया कि अमित शाह को राजनीति का चाणक्य क्यों कहा जाता है। प्रदेश की 325 विधानसभा सीटों पर बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने जीत हासिल की। लंबे समय से राजनीति में जनाधार होने के बावजूद विधानसभा पहुंचने को तरस रहे तमाम दलों के नेता ना सिर्फ विधानसभा पहुंचे बल्कि कई योगी सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल भी हुए।
चुनौती अभी भी खत्म नहीं हुई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में अगर समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया था तो 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन किया। 90 के दशक में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने इसी प्रकार का गठबंधन किया था जिससे अयोध्या में ढांचा गिरने के बावजूद, राम लहर के बावजूद बीजेपी जातीय चक्र को भेद नहीं पाई और सत्ता से दूर रह गई।
क्या था अमित शाह का 2019 में प्लान
अमित शाह ने 2019 में बिना किसी लागलपेट के ना सिर्फ संगठन को एक बार फिर चुस्त दुरुस्त किया बल्कि इस बार जातीय समीकरणों को साधने के लिए स्थानीय क्षेत्रीय दलों के साथ साथ संगठन स्तर पर पन्ना प्रमुखों को ऐसे प्रशिक्षित किया कि बीजेपी का एक भी वोटर ऐसा नहीं बचा जिसने वोट ना दिया हो। उत्तर प्रदेश में करीब 2 करोड़ 30 लाख वोटरों ने सीधे बीजेपी के पक्ष में वोट दिया और पार्टी जातीय चक्र को तोड़ते हुए और एंटी इंकंबैंसी की हवा निकाल कर 80 में से 63 सीटों पर जीत गई।
हर बार अमित शाह ने ना सिर्फ पुरानी लकीर को लंबा किया बल्कि सियासी तरकश से रणनीति के नए तीर छोड़ कर विपक्ष की योजनाओं को धूल-धूसरित कर दिया।
अब पहले से ज्यादा बड़ी चुनौती है। सामने 2022 का विधानसभा चुनाव है। केंद्र और राज्य में बीजेपी की सरकार है। बीजेपी के डबल इंजन वाली सरकार के अगर प्रशंसक हैं तो विरोधी भी हैं। बीजेपी के पुराने प्रयोगों से विपक्ष ने भी बहुत कुछ सीखा है। समय के साथ बीजेपी के पुराने दोस्त दुश्मन हुए हैं तो परंपरागत विपक्षियों ने सियासी दुश्मन के दुश्मन को अपना दोस्त भी बनाया है। इस लिहाज से एक बार फिर जातीय समीकरण चुनाव पर हावी होते नजर आ रहे हैं।
क्या है अमित शाह की 2022 रणनीति
ऐसे में अमित शाह एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ पहुंच रहे हैं। एक नई रणनीति के साथ। बड़ी बात ये है कि इस बार बीजेपी कुछ जातीय या वर्ग-समाज की राजनीति करने वाले दलों से नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में 1 करोड़ 70 लाख लोगों से गठबंधन करने जा रही है।
अब तक के इतिहास में इस तरह का गठबंधन पहले किसी पार्टी ने नहीं किया है। जब बीजेपी के विपक्षी जाति-समाज के दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं तो उस समय बीजेपी प्रदेश में सीधे लोगों से अपना नाता जोड़ने जा रही है। ओबीसी हो, एससी, हो, एसटी हो, साहित्यकार, कलाकार, खिलाड़ी, डाक्टर, इंजीनियर, पेशेवर वकील हो या समाज का कोई भी नागरिक जो किसी भी समुदाय से ताल्लुक रखता हो, बीजेपी का लक्ष्य उसे पार्टी का सदस्य बनाने का है।
यूपी में 2019 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग के मुताबिक 14 करोड़ 40 लाख मतदाता थे। जिसमें 7.79 करोड़ पुरुष वोटर, 6.61 करोड़ महिला वोटर, 8374 ट्रांसजेंडर मतदाता थे। 12 लाख वोटर ऐसा था जो 18 साल से ऊपर का था और पहली बार वोट डालने गया था। बीते दो साल में लगभग 10 लाख और ऐसा मतदाता तैयार हुआ होगा जिसे वोटर लिस्ट में 2022 में अपना नाम मिलेगा और वो पहली बार वोट डालेगा।
जीनियस अमित शाह ने 2022 के लिए जो रणनीति तैयार की है उस पर अमल करने के साथ ही बीजेपी का अपना वोटर 2 करोड़ 30 लाख से बढ़कर 4 करोड़ तक पहुंच जाएगा। ये संख्या एक बार फिर कुल वोटरों का लगभग तीस प्रतिशत होगी। भारत की राजनीति में यही ट्रेंड है। जिसके पास राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर तीस प्रतिशत का वोटबैंक सुरक्षित हो उसे सरकार बनाने में ज्यादा समस्या नहीं होती। 2019 में बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर पर कुल वोटरों का 37 प्रतिशत वोट हासिल किया था और बम-बम करते हुए केंद्र में सरकार बनाई थी।
2022 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी के पास अगर एक तिहाई मतदाता पार्टी का सदस्य हो गया तो उसे पूरे-पूरे परिवार का वोट ट्रांसफर होने में ज्यादा समस्या नहीं होगी। जब यह रणनीति ट्रेंड का रुप धरेगी तो चुनाव में पड़े कुल वोटों का 50 प्रतिशत बीजेपी की तरफ झुका हुआ होगा। आगे आप समझ सकते हैं कि कि "कमल- खिलेगा" और अमित शाह एक बार फिर बताएंगे कि "शाह का शाहकार" क्या होता है।
टीम स्टेट टुडे
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