विपदायें, समाज, राष्ट्र और हम - ओमप्रकाश मिश्र

विपत्तियाँ, व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन राष्ट्रों के जीवन तथा समष्टि के स्तर पर ,समस्त विश्व व पूरी मानवता-ब्रहमांड के काल खंड में आती हैं। विपत्तियों का आना अवश्यसंभावी है। वह चाहे किसी व्यक्ति का जीवन हो, या समाज का, राष्ट्र का या अखिल विश्व के स्तर का हो।
व्यक्ति के लिए, अगर जीवन बिल्कुल सपाट हो, कोई भी विपत्ति न आवे तो क्या वह सही अर्थों में जीवन माना जायेगा? वस्तुतः व्यक्ति की परीक्षा, तो समस्याओं के जंजाल को काटकर उससे निकलने की होती है। कुछ इने गिने ही व्यक्ति ऐसे हो सकते हैं, जिन्हे अपने जीवन में कठिनाइयों का समना नहीं करना पड़ा हो, सत्य तो यह है कि ऐसे व्यक्तियों द्वारा जीवन में कभी कोई असाधारण कार्य किया ही नहीं गया होगा। जो अटूट लगन, आत्मविश्वास, तथा धैर्य के साथ अपने लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं, अन्तोगत्वा सफलता उन्हें ही मिलती है।
यदि हम लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहेंगें तो मार्ग की बाधायें हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं पायेंगीं। स्थितियाँ, परिस्थितियाँ हमारें सामने जैसी भी हो, अपने मन की स्थिति हमें एक ही तरह रखकर धैर्य पूर्वक कठिनाइयों का सामना करना चाहिए, तभी हम उन पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
वस्तुतः मनुष्य की परीक्षा भी विपत्तियों को झेलने में होती है। मनुष्यों पर जब विपत्तियाँ आती है, उसे भीषण बाधाओं का सामना करना पड़ता है, तभी उसके चरित्र, गुणवत्ता व क्षमता का परीक्षण होता है।
‘‘ यथा चर्तुभिः कनकं परीक्ष्यते,
निषर्षणच्छेदन ताप ताड़नै।
तथा चतुर्भिः पुरूषं परीक्ष्यते
त्यागेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा।।‘‘
‘‘ चाणक्य नीति ‘‘ पंचम अध्याय (श्लोक 2)
अर्थात जिस प्रकार सोने की परीक्षा घिसने, काटने, तपाने व पीटने से होती है, उसी प्रकार मनुष्य की परीक्षा त्याग, शील, गुण व पराक्रम द्वारा की जाती हैं
हमारी परम्पराओं में, वही लोग श्रेयस्कर माने जाते हैं, जो संघर्षशील होते हैं, फिर चाहे वे राजा हों या सामान्य जन। भारतीय परम्पराओं में कभी भी सुविधा भोगी, अवसरवादी, पलायनवादी लोगों को सम्मान नहीं मिलता हैं।
यदि हम इतिहास के पृष्ठों को पलटें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जब कि व्यक्तियों ने अपने धैर्य, सूझ-बूझ, अदम्य उत्साह से प्रतिकूल परिस्थियों पर विजय प्राप्ति की। ये लोग, सामान्य कोटि से लेकर वीर पुरूषों तक की कोटि के हो सकते हैं।
‘‘ प्रारभ्यते न खलु विघ्न भयेन् नीचैः।
प्रारभ्य विघ्न विहिता विरमन्ति मध्याः।।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रति हन्यमाना।
प्रारभ्य चोत्तम जनान परित्यजन्ति।।
(‘‘ भर्तहरि नीति शतक‘‘ श्लोक 27)
इस संसार में अनेक प्रकार के लोग होते हैं। जिनका व्यवहार, कार्य करने का ढं़ग अलग-अलग होता है और इसी संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कार्य को भयवश आरम्भ ही नहीं करते। संसार में कुछ लोग ऐसे हैं, जो कार्य को बाधायें आने पर, बीच में ही छोड़ देते हैं। परन्तु इस जगत में ऐसे भी लोग होते हैं, जो चाहे कितनी भी बाधायें व समस्यायें आयें, वे अपने द्वारा आरम्भ किए हुये कार्य को अंतिम परिणाम तक पहुँचाने तक तन्मयता से अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक लगे रहते हैं। ऐसे लोग ही श्रेष्ठ कहे जाते हैं।
विपदायें वैयक्तिक स्तर की भी होती हैं, उनमें कई समस्याओं की प्रकृति व्यटिवादी होती ही हैं, परन्तु अनेकों समस्यायें समाज व राष्ट्र पर होती हैं, ऐसी समस्यायें समष्टिवादी प्रकृति की होती है।

देश, राष्ट्र व समाज, अलग-अलग भी हो सकते हैं, उनमें ऐक्य भी हो सकता है। जैसे एक समाज के लोग कई देशों में हो सकते है। भारतीय समाज के लोग कई देशों मे रहते हैं। इसरायल देश का उदाहरण बहुत महतवपूर्ण हैं, इसरायल की स्थापना 1948 में हुई, यानी भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद। भारत राष्ट्र तो हजारों वर्षों से है, सत्तायें खासकर (राजनैतिक सत्ता) बदलती रही हैं, परन्तु भारत-राष्ट्र की आत्मा, चिन्तरन जाज्वल्यमान रही है। राजनैतिक सत्ताओं से, भारत राष्ट्र की आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं रहा।
विचार का विषय है यह है कि जब संचार, परिवहन, प्रचार बिल्कुल नहीं के बराबर थे, तब भी कुम्भ के अवसर पर भारत राष्ट्र से कोने-कोने से पवित्र स्नान पर्व वर लोग श्रद्धा पूर्वक आते रहे।
आदि शंकराचार्य, ने चार स्थलों पर, जो देश के कोने में चार मठों की स्थापना की थी। एक ज्योतिष पीठ बदरिकाश्रम, दो- श्रंगेरी पीठ, तीन द्वारिका शारदा पीठ और चार- पुरी गोवर्धन पीठ। ये अत्यन्त पवित्र माने जाते हैं। राजनैतिक सत्तायें विदेशी आक्रान्ताओं व विधर्मियों के पास, भले ही रही हो, चारो पवित्र पीठों की मान्यता श्रद्धा निर्विवाद रही। भारत राष्ट्र की संकल्पना का यह एक अत्यन्त समीचीन उदाहरण समझा जा सकता है।
राष्ट्रों की विपदायें भी आती हैं, जिनको समाधान की ओर ले जाना एक चुनौती होता है। चाहे वैयत्तिक समस्यायें/चुनौतियाँ/विपदायें हों, या राष्ट्र-समाज के स्तर की समस्यायें/चुनौतियाँ/विपदायें हो, यही संघर्षो को लड़ने की क्षमता विकसित करती हैं इनसे व्यक्तियों व समाज-राष्ट्र के भीतर की सोई हुई शक्तियों को उद्वेलित होती है। विपदाओं के समय किए गये संघर्षो से पैदा हुई उद्वेलन की यह प्रक्रिया मनुष्य व समाज/राष्ट्र के भीतर सजगता का प्रवाह बढ़ाती है। चुनौतियों/समस्याओं/विपदाओं से घबराने से कोई लाभ नहीं हो सकता। मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु राम ने वैयत्तिक स्तर की विपदा व निष्काम कर्मयोगी वासुदेव प्रभु कृष्ण ने वैयत्तिक स्तर की विपदा को सार्वजनीन परिणाम देने के लिए संघर्ष का पथ मानव समाज को दिखाया।
राष्ट्र व समाज का चिन्तन, भारत-राष्ट्र की स्थायी निधि है। हमारे यहाँ राष्ट्र की संकल्पना का सूत्र मंत्र हैं:-
‘‘ माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः‘‘
अथर्ववेद (12. 1. 12)
हम भारतीयों के लिए, भारतमाता व पृथ्वी के साथ हमारे आत्मिक सम्बन्धों का जुड़ाव, रक्त सम्बन्धों जैसा ही है। भारत वर्ष हिमालय से कन्याकुमारी का तादात्म्य करता है। पर्वत, समुद्र, वृक्ष, वनस्पतियों, नदियों, तालाबों, सभी पशु-पक्षियों में देवत्व का दर्शन करती भारतीय संस्कृति का आधार माता-पुत्र का रिश्ता है। भारत एक भूमि, एक संस्कृति, अपनी एक चिति, अपना एक विराट, सभी का समुच्चय है।
हमारें यहाँ राजनैतिक-क्षेत्रीय-राष्ट्र की संकल्पना नहीं हैं, बल्कि एक व्यापक भू-सांस्कृतिक तत्व को समेटने की परम्परा रही है।
इस विमर्श से हमारे समाज में विपदाओं से संघर्ष करने की शक्ति मिलती है। राष्ट-समाज की चिन्ता करते समय, हमारी आस्था राष्ट्र चिन्तन को और भी प्रज्जवलित करती है।
विपदाओं के आने पर राष्ट्रों व समाजों के संघर्ष की चर्चा में, द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त जापान का उदाहरण, यहूदियों के संघर्ष का प्रतीक इसरायल तथा भारत राष्ट्र द्वारा कोरोना महामारी संकट का मुकाबला करने के उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त हैं।
