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"शान्ति" मानव जाति की शाश्वत खोज: ओम प्रकाश मिश्र



ओम प्रकाश मिश्र


मानव जाति के इतिहास में, शान्ति की खोज शाश्वत है। व्यष्टिगत व समष्टिगत दोनों स्तरों पर यह स्थायी आवश्यकता रही है। व्यक्तिगत स्तर पर शान्ति की तलाश परिवार समाज देश दुनिया से कुछ अलग सा सोचकर भी होती रही है। जंगलों -गुफाओं पर्वतो की कन्दराओं में भी व्यक्ति शान्ति खोजने जाता रहा है। परन्तु मुख व शान्ति अक्सर साथ-साथ नहीं चलते है। सुख का अर्थ, सामान्यतः लोग भौतिक सुखों से समझते हैं। सुख-शान्ति एक साथ रहने वाले होते तो ज्यादातर सुखों (अधिकांशतः भौतिक सुखों) की तलाश में , न तो सुख मिल पाता है और शान्ति मिलने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। सुखों की तलाश, भौतिकता/लालच/संग्रह/लोभ/कामनाओं की जनक होती है, जबकि शान्ति की तलाश के लक्ष्य एकदम अलग होते हैं।


व्यक्तिगत स्तर पर शांति जितनी आवश्यक हैं, उतनी ही आवश्यक समाज, देशों व अखिल विश्व के स्तर पर भी है। यह अनुभूति लगातार होते रहने के बावजूद द्वंद प्रत्येक स्तर पर होते रहे हैं।

आज समस्त संसार में अशान्ति का वातावरण व्याप्त है। अमरीका, चीन,रूस सरीखे बड़ी सैन्य शक्तियाँ तथा अन्य कुछ देशों के परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, मिसाइलों, अन्र्तमहाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइलों, घातक पनडुब्बियों, जंगी जहाजों, सुपर सोनिक जेट, तथा भाँति-भाँति के रासायनिक व बायोलाॅजिकल अस्त्रों से मानवता को खतरा बढ़ता जा रहा है।


अभी हाल में हमस व इसराइल के बीच हुआ ग्यारह दिनों का यह युद्ध आँख खोलने वाला हें वर्ष 2014 के बाद, पहली बार फिलीस्तीन और इजराइल के बीच ऐसा भीषण संघर्ष देखने को मिला हे। इस संघर्ष में ढ़ाई सौ से अधिक लोगों के मारे जाने व हजारों लोगों के घायल होने का समाचार है।

फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमस ने इजराइल पर सैकड़ों राकेट दागे थे, फिर इजरायल ने भीषण हवाई हमलों से हमस तथा नागरिको को भारी नुकसान पहुँचाया। यह एक महायुद्ध का ट्रेलर मात्र था। दोनों के बीच संघर्ष, वैश्विक आतंकवादी संगठनों; विश्व के वर्तमान देशों में विद्यमान लोकतांत्रिक देशों के लिए नहीं वरन् समस्त विश्व के लिए एक संदेश देता हे कि संघर्ष किसी भी समस्या का इलाज नहीं है।


इजराइल, संसार के यहूदी धर्मावलम्बियों के प्राचीन राष्ट्र का नया रूप है। इजरायल नया देश 1948 में अस्तित्व में आया। इसरायल देश प्राचीन फिलीस्तीन का ही वृहद रूप है। 1967 के स्वेजनहर में आवाजाही को लेकर हुये युद्ध में, इलरायल ने मिस्र, सीरिया, जार्डन आदि देशों की बुरी तरह पराजित किया तथा उनके कई भूभागों पर कब्जा कर लिया। इजरायल छोटा सा देश है, भौगोलिक क्षेत्रफल व जनसंख्या की दृष्टि से, परन्तु सैन्य शक्ति की दृष्टि से अत्याधिक सशक्त राष्ट्र है। दुनिया भर के यदूही, इजरायल को आर्थिक सहयोग करते है। विशेषतः अमरीका का खुला समर्थन इजरायल को लगातार मिला है। बहुत समय से, फिलीस्तीन एक संघर्ष व तनाव का केन्द्र रहा हैं। उस क्षेत्र में आतंकवादी संगठनों की शक्ति वर्षो से रही है, पर वहाँ की आम जनता पीडि़त ही रही है। कई बार मानवता की दृष्टि से, फिलीस्तीन के आम नागरिकों को जो झेलना पड़ा हैं; वह दुःखद हैं। किन्तु आतंक को प्रश्रय देने का दण्ड, राजसत्ताओं के साथ-साथ, आम जनता को भी सहना पड़ता हे। यानी गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। धार्मिक आधार पर विभाजनों व लड़ाइयों ने मानवता को सदैव कुचला है।



सारे संसार में, विभिन्न क्षेत्रो में, समय-समय पर हुये युद्धों में, मानवता का कत्लेआम हुआ करता रहा है। लगातार दिल दहलाने वाली घटनायंे तथा उनके हृदय विदारक दृश्य मानव समाज को आतंकित करते रहते हैं। युद्धों में, आमजनता को अपना घर छोड़कर पलायन करना पड़ता हैं, पलायन व विस्थापन का शिकार होना पडता है। हत्यायें, बलात्कार व यातनायें, युद्धों की अनिवार्य परिणति होती है। भारी हथियारों का प्रयोग आम जनता पर किया जाना युद्धों का नियम सा बन गया है।


युद्धों का परिणाम,समुदायों को छिन्न-भिन्न होते देखा गया है। युद्धों का निर्णय, राजसत्तायें करती हैं। अनेकों बार उनका दंभ, अन्धराष्ट्रवाद का भाव, दूसरे देशों की जमीन हड़पने का लक्ष्य युद्धों को आरम्भ कराती हैं। यह जमीन हड़पने का लक्ष्य, मानवता का सर्वनाश करते हुये दिखाई पडता है।

सच्चाई तो यह है कि वर्तमान काल में युद्धों में शायद ही किसी को स्पष्ट जीत दिखाई पडती है। आर-पार की स्थिति तो आती नहीं और युद्धों में एक पक्ष स्पष्टततः जीत नहीं पाता, परन्तु दोनों पक्षों को ही नहीं, वरन् आम आदमी का ही सर्वनाश करता है।

यही युद्धों की नियति होती है।

संसार में यदि, ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि मध्यकाल से ही , सभी युद्धों का परिणाम, महिलाओं के लिए अत्यन्त दुःखदायी होता रहा है। बलात्कार, वलात्दासी बनाने के भी व हरम की वस्तु बनाने के उदाहरण, खासकर मध्यकाल में रहे है। आज भी युद्धों में महिलाओं का शोषण होता ही है। यह अत्यंत निंदनीय है।




युद्धों का आरंभ, राज सत्तायें करती हैं, मरने वालों में आम जनता, सैनिक सभी होते है। किसी भी उच्चवर्ग के परिवार से सेना में जाने की परम्परा लगभग शून्य ही हैं। पहले राजस्थान के कुछ राजाओं के परिवार जन भी सेना में अधिकारी बनते थे, वह परम्परा भी अब क्षीण हो चुकी है।

ज्यादातर सेना में वही युवक आते है जो निम्न मध्यम वर्ग से आते है; उच्चवर्ग के लोग आजकल अपने बच्चों को सेना में नहीं भेजते क्योंकि सेना का जीवन कठिन है तथा वेतन भी कम है। भारत में बड़े राजनेताओं के परिवार से सेना में कार्यरत कोई सामान्यतः दिखाई नहीं पड़ता है। सेना में केवल गरीबों, निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों से ही आते हैं।

आजकल युद्धों की प्रकृति बदल सी गयी है। छद्म युद्ध भी, युद्ध ही है। आतंकवाद की घटनायें भी छद्म युद्ध ही हे। बम्बई हमला, जैसी आतंकवादी घटनायें भी युद्ध जैसा ही है।

युद्धों का परिणाम, मजदूरों, गरीबों, महिलाओं, बच्चों का सर्वाधिक ही सर्वनाश ही होता है। युद्धों में जीत किसी की नहीं होती है, दोनो पक्षों को उनके गरीबों-मजदूरों- बच्चों-महिलाओं का सर्वनाश ही देखना पड़ता है।

राजाओं, बादशाहों, विदेशी आक्रान्ताओं, व वर्तमान काल के अभिजात्य राजसत्ताओं के दंभ में कोई अन्तर नहीं है। अगर आगे कोई विश्वयुद्ध होगा ,तो उसका परिणाम कितना भयानक होगा, उसका ट्रेलर हिरोशिमा व नागासाकी की जनता के रूप में देखा जा सकता है। इस संभावित विश्व युद्ध के बाद, यदि मानवजाति बचेगी भी, तो वह अगली लड़ाई पत्थरों से कर सकेगी। यह गंभीर चिन्तन का विषय है।

अब युद्धों की प्रकृति के आयाम भी बढ़ रहें हैं। पहले केवल सामरिक संघर्ष होते थे, फिर आर्थिक संघर्ष प्रबलता से होते हुये, दिखाई पड़ते रहें हैं। पहले सभ्यताओं के बीच संघर्ष, जमीन हड़पने के लिए ही मूलतः ही होते थे, परन्तु अब सभ्यता व संस्कृति केन्द्रित संघर्ष भी बढ़ रहे है। बहुत बार तो जमीन हडपने का ही लक्ष्य नहीं होते हैं। दुर्भाग्य से सभ्यताओं संस्कृतियों व कभी-कभी धर्म का भी आधार बनाकर युद्ध थोपे गये हैं, परन्तु युद्धों का खेल महाशक्तियों द्वारा ही संचालित होते रहे हैं। यह सच है कि सद्दाम हुसैन, खाड़ी यु़द्ध (गल्फ युद्ध) में जिन हथियारों के आधार पर पश्चिम से लड़े थे, वे हथियार ज्यादातर पश्चिम से ही आये थे। सभ्यताओं, संस्कृतियों व धर्म आधारित युद्ध, रक्तरंजित हुये हैं, परन्तु कही से, पीछे, महााशक्तियों की कुटिल नीतियाँ ही रही है।


सभ्यताओं में अहंकार होता हैं; इसलिए परस्पर द्वंद हो सकता हैं, परन्तु युद्ध कराने के लिए, महाशक्तियों का हाथ अवश्य रहता हैं। रक्त-पिपासु शत्रु-समान सभ्यताओं को भड़काने वाले व पीछे से हाथ रखकर युद्ध कराने वाले, बडे़ देश होते है, जो हथियार की आपूर्ति करते है।

बड़ी शक्तियों का संयुक्त राष्ट्र-संघ एक दिखावटी विश्व-संसद होकर रह गयी है। वस्तुतः इसकी ताकतवर संस्था सुरक्षा परिषद हैं। इसके पाँच स्थायी सदस्यों-चीन,फ्रांस,रूस,ब्रिटेन व अमरीका के पास किसी भी फैसले के विरूद्ध विशेषाधिकार (वीटो) की शक्ति प्राप्त है। यह वीटो ही विश्व भर के बहुत सारे द्वंदो-संघर्षो व युद्धों का कारण; ये पांच महाशक्तियाँ, अपनी-अपनी बारी से विश्वबन्धुत्व को पलीता लगाया हैं; जब दुनिया के सारे देश समान हैं, तो फिर वीटो का क्या औचित्य हैं समझ में नहीं आता कि वीटो की आवश्यकता, क्या विश्व की ठीकेदारी करने के लिए है? आवश्यकता तो इस बात की है कि उदात्त मानवीय मूल्यों पर आधारित विश्व संस्कृति का निर्माण किया जायं संयुक्त राष्ट्र संघ तथा सुरक्षा परिषद, इस लक्ष्य या आदर्श के लिए पूर्णतः असफल सिद्ध हुये है। समस्या की जड़, वीटो की ताकत की आड़ में दादागीरी कायम रखने की है।


ओम प्रकाश मिश्र (पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी)

वस्तुतः विश्व समुदाय में दादागीरी की प्रवृत्ति के बीज कई देशों में हिंसात्मक तरीके की तथाकथित क्रान्तियों के बल पर पायी गई स्वतंत्रता भी हैं चीन में माओत्सेतुंग ने कुछ हजार लोगों व कुछ सौ बन्दूकों से 1926 में गतिविधियाँ शुरू की और 1949 तक वे चीन के अधिपति बन बैठे। वहीं तुल्नात्मक रूप से, मोटे तौर पर भारत का स्वाधीनता संग्राम, शान्तिपूर्ण ही माना जाता हैं यद्यपि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन से आरंभ हुई ज्वाला को, बीच-बीच में सरदार भगत सिंह, चन्दशेखर आजाद, से लेकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा नौसेना विद्रोह के भी योगदान ने भी महत्वपूर्ण बल प्रदान किया था। यद्यपि भारत की स्वतंत्रता के समय साम्प्रदायिक हिंसा बहुत बड़े पैमाने पर हुई थी।

रूस का साहित्य भी एक हजार वर्ष का खून-खराबा, युद्ध, अत्याचार और क्रूरता को ध्वनित करता है। जारशाही के अंतिम वर्र्षो में कू्ररता व निरंकुशता ही रही। लेनिन ने चिनगारियों को लपेटों में बदल दिया। रक्तरंजित क्रान्तियों ने रूस और चीन में सामाजिक, राजनैतिक, व शासनतंत्र पर पूरा-पूरा कब्जा कर लिया थां। भारत में तुलनात्मक रूप से शान्तिपूर्ण स्वतंत्रता आन्दोलन का परिणाम, भारत के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्थापना के रूप में हुई। भारत में लोकतंत्र की जड़े मजबूत हैं।

भारतीय धर्म, दर्शन तथा नैतिकता की अधिकांश मौलिक कल्पनाओं का विकास और प्रतिपादन, पाश्चात्य देशों की तुलना में बहुत पहले से हुआ है। विशाल आबादी, समृद्ध प्राकृतिक संसाधन व लोकतांत्रिक मूल्यों पर आस्था, भारत की मूल शक्ति है। हमारा मानना रहा है कि मात्र आकार-विस्तार व भूमि विस्तार से कोई देश या राष्ट्र महान नहीं बनता हैं।

इतिहास हमें बताता है कि युद्ध की समस्या को हल करने के लिए, देशों ने और भी युद्ध जबरन थोपे। शक्तिसंतुलन साधने के लिए, शीतयुद्ध के कालखण्ड रहें। शीतयुद्धों के कालखण्ड में घातक हथियारों की अन्धी दौड़ चलती रही है।

अरस्तू ने प्राचीन यूनान के बारे में कहा था, कि हमारे समाज में सर्वदा दो प्रकार के नगर होते हैं- एक तो अमीरों का नगर और दूसरा गरीबों का। आजकल यह विभाजन पूरे संसार में दिखलायी पड़ता है।

इस प्रकार के विभाजन सभी समाजों में सभी कालखण्डों में कमोवेश, किसी न किसी रूप में रहते ही रहे हैं। परन्तु भारत में त्यागपूर्ण भोग ‘‘तेन त्यक्तेन भुञजीथा ’’ का सिद्धान्त आदि काल से रहा है। त्यागपूर्ण भोग, संतोष तथा दान की महिमा; भारतीय जीवन मूल्यों का आधार हैं।

संसार में भौतिकवाद लगातार बढ़ रहा हैं शान्ति का लेशमात्र ही दृष्टिगोचर नहीं होता है। जब तक दर्शन शास्त्रों के श्रवण-मनन होते थे, तब देश में सुख व शान्ति थी। आज संसार में रागद्वेष, अशान्ति व दुःख व्याप्त है।

दरअसल वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण जैसी कल्पनायें भारत के लिए नवीन विचार नहीं हैं विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोष ऋग्वेद में प्रार्थना हैं; हे परम प्रकाशक परमात्मा। सद्विचार सभी दिशाओं (समूचे विश्व) से हम पर आयें। हम ‘‘ वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘ की अवधारणा पर विश्वास करते है। हम विश्व को परिवार मानते हैं। ‘बाजार‘ नहीं।

मनुष्य स्वाभाविक रूप से हिंसा पसन्द नहीं करता, परन्तु कई देशों में देखा गया है कि रह नया सत्ताधीश, पहले वाले की तुलना में, कहीं ज्यादा रक्त पिपासु हुआ है। कई देशों में सत्ता का चरित्र ही ताकत माना जाता है। यद्यपि आदर्श अवस्था तो असहमति का आदर करना ही हैं। भारत में कबीर जैसे साधकों ने बहुत पहले ही निंदक को आँगन में घर बनवाकर सम्मान देने के लिए उपदेश दिये थे। आज विश्व में, हर एक व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति भातृभाव का विचार उत्पन्न कराना ही आवश्यक हैं।

मनुष्य जैसा भी है, परमात्मा का ही विस्तार है; जो मनुष्य सहमत हैं वे भी तथा वे भी जो असहमत हैं। हमें भगवान बुद्ध, महावीर, आदिशंकराचार्य, सुकरात की तरह; सहमति व असहमति के मध्य, विचार विमर्श की परम्परा को विस्तार देना चाहिए।

आजकल विश्व में ‘‘शक्तिः परेशां परपीडनाय‘‘ का सिद्धान्त ही ज्यादा प्रचलन में है। संसार के कई क्षेत्रों से शान्ति-शान्ति की आवाज बुलन्द होनी चाहिए। मानव-संहारक अस्त्रों के प्रयोग की खुली छूट का परिणाम क्या होगा, इसकी कल्पना ही दहशत पैदा करती हें भारत में तो शांति के लिए अनेक महापुरूषों ने अपना सारा जीवन लगा दिया था। नागरिकों की उदात्त गुण सम्पदा का उपयोग, रचनात्मक कार्यो में हो, ध्वंसात्मक कार्यो में न हो; ऐसी हमारी मान्यता रही हैं।


भारतीय संस्कृति की परम्परा, समस्त विश्व, सारी पृथ्वी, व समस्त ब्रम्हाण्ड में शांति की पक्षधर रही है।

यजुर्वेद में कहा गया है-


‘‘द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः,

पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्ति।

वनस्पतयः शान्तिर्वियवेदेवाः शान्तिब्र्रहम शान्तिः,

सर्व शान्तिः , शान्तिरेव शान्तिः, सामा शान्तिरेधि।।

-यजुर्वेद (अध्याय 36, श्लोक 17)


उक्त श्लोक के भाव यह हैं कि - ‘‘हे जगत के परम सत्ता, परब्रहम परमेश्वर, शांति स्थापना करें। तीनों लोको में, जल में, धरती में और आकाश में, अन्तरिक्ष में, वनस्पति वन में, उपवन में, सम्पूर्ण विश्व में अवचेतन में शान्ति करें। जीवमात्र के हृदय में, मुझमें तुम में शांति। जगत के कण-कण में शांति ही शांति हों।‘‘


विचार करने की बात यह है, आज से हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषियों-मनीषियों ने जिस प्रकार से सारे विश्व, प्रकृति, वनस्पतियों आदि सभी की शांति की कामना की थी। अस्तु समस्त विश्व में व्यष्टिगत व समष्टिगत दोनो ही स्तरों पर भारतीय परम्परा का अनुसरण ही वरेण्य हैं।


लेखक ओमप्रकाश मिश्र पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय एवं पूर्व रेल अधिकारी हैं।


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