google.com, pub-3470501544538190, DIRECT, f08c47fec0942fa0
top of page
Writer's picturestatetodaytv

बिना विचार किए प्रस्ताव का विखंडन तो न कीजिये ! - के. विक्रम राव


@KVikramrao1


एक राष्ट्र-एक चुनाव के प्रस्ताव पर इतना संगठित, मुखरित विरोध देखकर एक शब्द “निषेचन” याद आया। इसके अर्थ होते हैं फर्टिलाइजेशन (सींचना) अर्थात शुक्राणु कोशिका तथा अंड कोशिका का सम्मिल्लन ताकि गर्भष्ट शिशु का निर्माण शुरू हो। अब नरेंद्र मोदी ने एक विचार सर्जाया। मकसद है कि जनधन की फिजूल खर्ची कटे, मतदान प्रक्रिया में ईमानदारी आए, जनमत की अभिव्यक्ति में विलंब न हो, इत्यादि। प्रधानमंत्री कोई अमरजीवी तो होता नहीं जो उसका लाभ आजीवन उठायें। अब उनके आलोचक विचार की भ्रूण हत्या करने पर तुले हैं। संसदीय लोकतंत्र एक प्रयोग है जो अनुभव से विकसित होता है। इंग्लैंड में नौ सदियां लगी निरंकुश राजा से सत्ता छीन कर आमजन को दिलवाने में। ब्रिटिश इतिहास गवाह है। लंदन में जब सांसद निकृष्ट हो गए थे (अगस्त 1962), तब जनरल ओलिवर क्रामवेल ने राजा चार्ल्स प्रथम का सर कलम कराया, खुद तानाशाह बन गया। संसद भंग कर दी। राजनीतिक सुधार चालू किये। सब एक निश्चित प्रक्रिया के तहत। हालांकि बाद में ब्रिटेन में राजतंत्र आ ही गया था। ब्रिटिश संसद की माता कहलाती है।

भारत में तो एक राष्ट्र-एक चुनाव का मात्र विचार अब प्रस्तुत हुआ है। एक ख्याल, एक धारणा, मनन-चिंतन हेतु एक भाव। खारिज किया जा सकता है, पर सोचने समझने, चर्चा करने के बाद। वर्ना शिशु हत्या जैसी होगी। मोदी-विरोधी इस विखंडन और हनन पर ही आमादा हो गये। वर्ना प्रयोग होते। गौर करें, जांच करें फिर निष्कर्ष निकालें। मसलन प्रारंभ में भारतीय संविधान सभा में मुद्दा था कि भारतीय गणराज्य का आकार राष्ट्रपतिवाला हो अथवा संसदीय। फिर यही निचोड़ निकला कि इतनी विविधता से लबाज राष्ट्र में संसदीय प्रणाली ही बेहतर होगी। राष्ट्रपति प्रणाली से कहीं एक व्यक्ति अधिनायकवादी न हो जाए ? मगर हुआ यही। मतदाता राष्ट्रीय चुनाव में प्रधानमंत्री के नाम पर अपनी पसंद व्यक्त करते रहे। पहले डेढ़ दशकों में जवाहरलाल नेहरू के नाम पर, फिर उनकी बेटी इंदिरा गांधी की बात पर और बाद में उनके पुत्र राजीव की आवाज पर समर्थन देते रहे। आज नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट पड़ता है। अतः वोटर के सामने विकल्प सीमित रहे, चयन भी संकुचित ही रह गया। तो फिर काहे इतनी तर्क-मीमांसा ? भारतीय संसदीय लोकतंत्र में यह प्रश्न उठा भी था। तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे। मुद्दा था कि संविधान के अनुसार कौन महाबली है ? राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ? डॉ. राममनोहर लोहिया का जवाब था : “निर्भर करता है नेहरू किस पद पर रहते हैं।”


तात्पर्य यही कि एक चुनाव वाला प्रस्ताव अभी विचारणीय है। विकासशील जनतंत्र में संवाद, बहस, तर्क-वितर्क का महत्व और आवश्यकता अपार-अनंत होती है। अब प्रतिपक्ष की पार्टियां संसद में बहस को ही अवरुद्ध करना चाहती हैं। बदलाव ही न हो ? भारतीय संविधान को गत सात दशकों में 105 बार संशोधित किया जा चुका है। सभी ने अंगीकार किया। एक दौर चर्चा का और भी हो जाए ! विचार विमर्श न करना, बातचीत में अड़ंगा लगाना। सब वैचारिक उच्छृंखलता और दिमागी तानाशाही के लक्षण हैं। उनको ख्याल होना चाहिए कि मध्यावर्ती चुनाव से राजकोष का अपव्यय होता रहा है। शासकीय अस्थिरता बढ़ी है। राजनीतिक अवसरवाद पनपा है। तो मूल मसला है कि गरीब राष्ट्र भारत ऐसी विलासप्रियता क्या सहन कर सकता है ? संविधान लागू होने की तारीख (26 जनवरी 1950) से अब तक राज्य विधान सभाएं सौ से अधिक बार भंग की जा चुकी हैं। खर्चीले मतदान आयोजित हुए हैं। प्रशासनिक कुशलता बाधित हुई है। मौकापरस्त सौदेबाजी तो हुई ही है। इस विषय पर तमिलनाडु से कांग्रेसी सांसद ईएम. सुदर्शन नाचिप्पन की अध्यक्षता में संसदीय स्थाई समिति ने बताया था कि विगत सोलह लोकसभाओं में सात गठबंधन सरकारें अवधि से पहले ही गिर गई थीं। इस कांग्रेस-नीत समिति की राय थी : “कुछ विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के मध्यावधि में भी हो सकते हैं। शेष विधानसभाओं के चुनाव वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल की समाप्ति के साथ हो सकते हैं। समिति ने बताया था कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 चुनाव आयोग को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल समाप्त होने से छः महीने पहले आम चुनावों को अधिसूचित करने की अनुमति देता है।”


इसी भांति संसदीय स्थायी समिति ने 2015 में अपने 79वीं रपट में कहा था : “लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की व्यावहारिकता” पर अपनी रिपोर्ट में कई औचित्य बताए थे। रिपोर्ट में कहा गया कि एक साथ चुनाव कराने से हर साल अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाला भारी खर्च कम हो जाएगा। चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता लागू होने से नीतिगत पंगुता के कारण सामान्य शासन और विकासात्मक कार्यों पर गंभीर असर पड़ता है। वह नहीं होगा।”


अब आरोप-प्रत्यारोप के बजाय इस अभाव पर ध्यान दें कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने चुनाव सुधार पर गंभीरता से आज तक विमर्श क्यों नहीं किया। याद करें, समय पर राज्य विधानसभाएं और लोकसभा चुनाव 1967 तक, तीन बार हुए थे। सफलतापूर्वक रहे। मगर राजनीतिक कारणों और निजी हित में 1970 (दिसंबर) में इंदिरा गांधी ने चौथी लोकसभा भंगकर पहली बार मध्यावर्ती निर्वाचन कराया। कारण था कि उनकी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी टूट गई थी। इंदिरा गांधी की सरकार कम्युनिस्टों की बैसाखी पर टिकी थी। तब इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ” का नारा लगाकर सत्ता पा ली। मगर कोई भी चुनाव सुधार नहीं कराया। भला हो राजीव गांधी का कि दलबदल का विरोधी-कानून (1986) लाकर राजनीति का कैंसर खत्म किया।


इन्हीं इंदिरा गांधी को श्रेय जाता है कि उन्होंने लोकसभा की पांच सालाना अवधि बढ़ाकर 1977 में चुनाव कराया। सालभर बाद। मगर अवधि ही 1975 में सालभर बढ़ा भी दी थी। विधानसभा यूं पांच वर्ष तक चुनी जाती है। उन्हें भी इंदिरा गांधी ने इच्छानुसार भंग किया। गत सात दशकों में धारा 356 का उपयोग सैकड़ा पार कर गया। बड़ा विद्रूप तो था 1980 में जब थोक में कई गैर-कांग्रेस शासित राज्य विधानसभा भंग कर उन पर केंद्रीय शासन ठोक दिया गया था। गनीमत रही कि सर्वोच्च न्यायालय ने एस. आर. बोम्मई वाली याचिका पर नियम निर्धारित कर दिया कि सरकार को बहुमत का परीक्षण विधानसभा के सदन में होगा, न कि राजभवन के प्रांगण में। अच्छी परंपरा शुरू हुई। इसमें मध्यावर्ती चुनाव की अशिकाएं कुछ कम हुई हैं।


@KVikramrao1 , Senior Journlist

एक आलोचना कांग्रेस पार्टी की इस एकल राष्ट्रीय निर्वाचन की यह रही कि इससे देश के संघीय आकार की क्षति होगी। अब सूप-छलनी वाली कहावत याद आ गई। सर्वाधिक अवधि तक कांग्रेस पार्टी राज्यों और केंद्र में सत्ता पर रही। उसकी तानाशाही वाली नियत उजागर हो गई थी। केरल में 1957 में भारतीय इतिहास में पहली बार कांग्रेस के एकाधिकार और वर्चस्व को तोड़कर ईएमएस नंबूदिरिपाद की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई थी। साल भर बाद ही कांग्रेस अध्यक्ष के दबाव में प्रधानमंत्री ने चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया। इंदिरा गांधी पार्टी मुखिया बनी थी। नेहरू प्रधानमंत्री थे। तो किसने सर्वप्रथम संघीय ढांचे का अतिक्रमण किया ? अतः राहुल गांधी जब मोदी सरकार पर आरोप लगाते हैं तो अपनी दादी और उनके पिता की हरकतों को याद कर लें। अतः निचोड़ यही है कि मोदी सरकार द्वारा पेश इस चुनाव सुधार पर निष्पक्ष तौर से विचार करें। लोकतंत्र प्रयोगशाला है। निरंतर विचार और प्रयास होते रहने चाहिए। ताकि सुधार क्रम चलता रहे।


K Vikram Rao

E-mail: k.vikramrao@gmail.com

4 views0 comments

Comments


bottom of page