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समृद्ध विज्ञान के साथ जरुरी है वैज्ञानिक दृष्टिकोण जिज्ञासा एवं संशय शोध उपकरण - हृदय नारायण दीक्षित




हृदयनारायण दीक्षित

संशय ज्ञान यात्रा का मुख्य उपकरण है। लेकिन यह चित्त को स्थिर नहीं होने देता। जीवन रहस्यों के अध्ययन संशय के कारण निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। नए प्रश्न उठाते हैं। जानता हूँ कि संशय व्यथा देते हैं तो भी मैं संशयों को महत्वपूर्ण मानता हूँ। संशय और प्रश्नाकुलता की व्यथा रचनात्मक भी होती है। माक्र्स और ऐंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में सर्वहारा/गरीब/मजदूर की शक्ति बतायी, ‘‘सर्वहारा वर्ग केवल अपने को पुनर्जीवित नहीं करता, अपने साथ पूरी कौम को पूरे समाज को पुनर्जीवित करता है।’’ लेकिन भारतीय चिंतन में सर्वहारा नहीं होते।


बेशक गरीब होते हैं और गरीब भारतीय समाज के ही अंग है। यहां का समाज गतिशील है। यहां वर्ग अस्मिता नहीं है। वर्ग संघर्ष वाम विचार की कल्पना है। यहां आत्म विश्लेषण होता रहता है और आंतरिक शक्तियों का जागरण भी। समाज का जागरण स्वयं को पुनर्जीवित करता है। कम्युनिस्ट विचार का पुनर्जीवन गरीब/सर्वहारा के सामान्य जीवन को मुर्दा मानकर चलता है। मुर्दे ही पुनर्जीवित होते है, जीवित के पुनर्जीवित होेने के प्रश्न ही नहीं उठते। भारत के ऋषियों ने इसके लिए एक प्यारा शब्द ‘द्विज’ गढ़ा। द्विज का मतलब होता है, दुबारा जन्म।

भारत में द्विज की अनुभूति दूसरी है। एक जन्म जैविक है। माँ जन्म देती है। परिवार पालता है। नाम देता है। संस्कार देता है। अपने ईष्र्या, द्वैष, बुद्धि विवेक थोपता है। फिर शुरू होता है, आत्म विश्लेषण। बेचैनी बढ़ती है। प्रश्न उठते हैं, प्रश्नाकुल चित्त यथास्थिति पर प्रहार करते रहते हैं। संशय और तर्क के कारण यथास्थितिवादी समाज असुविधा में फंसते हैं। सच्चाईयाँ हाथ लगती है। नए अनुभव नई सच्चाई लाते हैं। जो पहले सच लगता है, वही झूठ हो जाता है। द्विज का मतलब माँ से मिले जन्म के बाद अपने भीतर से ही अपना पुनर्जन्म है। अपने भीतर से अपना दुबारा जन्म लेना आसान काम नहीं है। जन्म के लिए गर्भ चाहिए। गर्भ के लिए क्षेत्र चाहिए।


व्यक्ति के भीतर दो जन्मदाता हैं। उसमें माँ है, उसमें पिता हैं। हम सबका जन्म माँ-पिता की समर्पण निधि है। द्विजत्व के लिए भी अपने द्वैत का समर्पण चाहिए। द्वैत की स्थिति में हमारे भीतर से ही हमारा दूसरा जन्म होता है। ऋत, सत्य, रस प्रत्यक्ष हो जाते हैं। अहं शून्यता और समय शून्यता की दीप्ति उगती है। एक ज्योतिर्मय आभा प्रकाश स्नान कराती है। भारत ने इसे द्विजत्व कहा। लेकिन यह निष्कर्ष भी मेरा नहीं है। मैंने द्विज को देखा नहीं है। वेशक तद्विषय तमाम अध्ययन कर चुका हॅू। संशय जस के तस हैं। दुनिया में तमाम वैज्ञानिक शोध हुए है। लगातार हो रहे हैं। विज्ञान समृद्ध हो रहा है लेकिन लोगों के जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं हुआ। प्रख्यात वैज्ञानिक आईंस्टीन ने स्पष्ट किया है, ’’ जिसने भी उन उपकरणों व विधियों का व्यवहार करना सीख लिया है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वैज्ञानिक प्रतीत होते हैं, मैं उन्हें वैज्ञानिक नहीं मानूंगा। मैं उन व्यक्तियों की बात कर रहा हॅूं जिनमें वैज्ञानिक मानसिकता जीवंत है।’’

वैज्ञानिक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अंतर है। विज्ञान प्रकृति की गतिविधि की खोज करता है। वह वैज्ञानिक शोध से प्राप्त सत्य के सदृपयोग पर गंभीर नहीं होता । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सम्बंध लोक मंगल से है। इस दृष्टिकोण के समर्थक अंधविश्वासी नहीं होते। वे जिज्ञासा, तर्क और संशय के उपकरणों से समृद्ध होते है। आईंस्टीन के अनुसार ’’जो विषय वस्तु सामने है, वह इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव है, जो सिद्धांत इसकी व्याख्या करता है, वह मानवकृत है। वह अनुकूलन की श्रम साध्य प्रक्रिया है-पूर्वानुमानित कभी कभी पूरी तरह अंतिम नहीं होते। यह सदा प्रश्नों और संदेहों से ग्रस्त रहने वाली होती है।’’ वैज्ञानिक दृष्टिकोण में प्रश्नों और संदेहो की उपयोगिता है। प्रश्न और संदेहो से अंध विश्वास टूटते है। ऋग्वेद प्रश्न जिज्ञासा और संदेहो वाले विवरण से भरा पूरा है। अनेक ऋषियों के चित्त में प्रकृति रहस्यो जिज्ञासा की व्यथा है। ऋग्वेद में दर्शन और विज्ञान के जन्म और विकास के सूत्र हैं।

सामाजिक विकास के प्रथम चरण में दर्शन और विज्ञान अलग-अलग नहीं थे। प्रयोगशाला वाला विज्ञान बहुत बाद का है। ज्ञान प्राप्ति की इच्छा व प्रयास अंतहीन है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रचलित पंथिक विश्वासों में सहमति नहीं होती। विज्ञान से उपलब्ध जानकारी कभी अन्तिम नहीं होती। तमाम वैज्ञानिक विज्ञान के ही निष्कर्ष संशोधित करते रहते हैं। विज्ञान से उपलबध ज्ञान अंतिम नहीं होता। ज्ञान विज्ञान सतत् विकासशील अनुशासन है। पंथिक विश्वास अपने ज्ञान को अंतिम सत्य मानते हैं। वे अपने ज्ञान को दैवी बताते हैं। जो दैवी ज्ञान को नहीं मानते, वे उन्हें दंडित करने की योजना बनाते रहते हैं। पंथिक विचार में तर्क, संदेह व जिज्ञासा की गंुजाइश नहीं है। वैदिक ज्ञान में देवो पर भी तमाम प्रश्न है। जिज्ञासा है और संशय भी है। यूरोप के अनेक दार्शनिक भी देवो के सम्बन्ध में संशय का साहस नहीं जुटा सके। यूनानी दार्शनिक सुकरात को देवो पर प्रश्न करने के लिए मृत्युदण्ड दिया गया था।




आज का विश्व इसके पहले के विश्व के विकास का परिणाम है। प्रकृति सतत् परिर्वतनशील है, लेकिन लगभग 18वीं सदी के अन्तिमकाल तक यूरोप के वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रकृति के परिवर्तनों के बारे में सजग नहीं थे। वे यह मानते थे कि प्रकृति सदा से ऐसी ही है। यह बात ठीक है कि प्रकृति सदा से है लेकिन प्रतिफल परिवर्तनीय भी है। भारतीय चिंतन के अनुसार प्रकृति सदा से ऐसी नहीं है। यूरोपीय विद्वानों ने यह बात बाद में स्वीकार की। एंगिल्स ने लिखा है कि ज्ञान ज्ञान के क्षेत्र में और वस्तु, पदार्थ के विवेचन में 18वीं सदी के पूर्व का प्रकृति विज्ञान यूनान के प्रचीनकाल से ज्यादा ऊंचाई पर है, लेकिन इस सामग्री पर सैद्धान्तिक रूप में अधिकार करने में, सामान्य दृष्टिकोण में यूनानी प्राचीनकाल से इतने ही नीचे हैं। प्राचीन यूनानी दर्शन में सृष्टि के जन्म के लिए किसी एक आदि तत्व पर गहन विचार हुआ है। यही विचार भारतीय चिंतन के वैदिककाल में भी है।


सृष्टि निर्माण के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण ऋषियों की जिज्ञासा गहरी है। वह विनम्रतापूर्वक प्रश्न करते हैं, ’’कौन जानते है, कौन बतायेगा कि यह सृष्टि कैसे और कहां से उत्पन्न हुई। देवता भी सृष्टि के बाद ही उत्पन्न हुए हैं। (10.129.16) वैदिक ऋषियों के चिंतन में संशय भी हैं। ऋग्वेद में ऐसे अनेक प्रश्न सूर्य के बारे में है। यहां ऋषियों के संशय और मजेदार हैं। कहते हैं कि “सूर्य बिना सहारे के नीचे की ओर उन्मुख होकर प्रकाश देते हैं। वह ऊपर की ओर भी उन्मुख हैं।” ऋषि के मन में संशय जिज्ञासा और प्रश्न हैं। सूर्य के बारे में जिज्ञासा है। कि वह रात्रि के समय कहां रहता है। ऋग्वेद (1.164.4) में जिज्ञासा है जो स्वंय अस्थि विहीन है लेकिन अस्थिवानों का पोषक है। उसे जन्म लेते किसने देखा है? इसी तरह का एक संदर्भ प्रश्न पृथ्वी के बारे में भी है कि भूमि के प्राण कहां है। सम्पूर्ण लोको और भूमि के केन्द्र के बारे में भी प्रश्न है, “मैं सभी भूतो के बारे में जानता चाहता हूं। ’’आकाश, अग्नि, जल और वायु भारतीय चिंतन में पांच तत्व हैं, ऋषि प्रश्न तर्क और संशय के विवरण में कहीं-कहीं निरूपाय जैसे दिखाई पड़ते हैं। कहते हैं कि मैं नहीं जानता कि सत्य क्या है? अपनी ओर से भी जानकारी देते हैं। जिज्ञासा और संशय शोध का उपकरण बने रहते हैं।


लेखक - श्री ह्रदय नारायण दीक्षित जी उ.प्र. विधानसभा के अध्यक्ष हैं।



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