google.com, pub-3470501544538190, DIRECT, f08c47fec0942fa0
top of page
chandrapratapsingh

सोनिया-कांग्रेसी का फिर अटलजी पर ब्रिटिश मुखबिरी का आरोप !!


के. विक्रम राव Twitter ID: Kvikram Rao

फिर गड़ा मुर्दा उखाड़ा कांग्रेसियों ने अटल बिहारी बाजपेई के बारे में। आरोप लगाया कि यह पूर्व प्रधानमंत्री 1942 में ब्रिटिश सरकार का मुखबिर था। “भारत छोड़ो” सत्याग्रह का विरोध किया था। वरिष्ठ कांग्रेसी, सोनिया गांधी द्वारा नामित नए पार्टी प्रमुख मापन्ना मलिकार्जुन खडगे के मीडिया परामर्शदाता, गौरव पांधी ने ट्वीट किया। ठीक उस वक्त जब उनके नेता राहुल गांधी अटल जी की 98वीं जयंती पर उनकी यमुनातटीय के स्मृति स्थल पर बनी उनकी समाधि पर माल्यार्पण कर रहे थे। सोशल मीडिया पर पांधी का वक्तव्य खूब प्रसारित हुआ है, हालांकि बाद में उन्होंने इसे मिटा दिया। मगर “टाइम्स ऑफ इंडिया” के मुंबई संस्करण में (27 दिसंबर 2022) : पृष्ठ 9, कालम 2 से 3 पर शीर्ष में छपा है। (ऊपर फोटो देखें।) इस ऐतिहासिक झूठ को पहले तो हर लोकसभा चुनाव पर लखनऊ, (अटल जी का मतदान क्षेत्र) में प्रसारित हुआ करता था। महीना भर बाद बिसरा दिया जाता रहा।

शत्रुओं, खासकर तथाकथित वामपंथियों की एक फितरत जैसी हो गई थी कि अटलजी को 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में खलनायक, बल्कि ब्रिटिश राज के मददगार की भूमिका में पेश किया जाय। यह एक सरासर ऐतिहासिक झूठ रहा। मगर नाजीवादी प्रोपेगेण्डा शैली की नकल में भारतीय कम्युनिस्ट इस झूठ को बारंबार दुहराते रहे ताकि लोग सच मान ले। मतदान खत्म हुआ कि यह कुप्रचार भी हवाई हो जाता रहा। कहीं आज की किवदंतियां कल ऐतिहासिक दस्तावेज न बन जायें। इसलिए विकृतियां समय रहते दुरुस्त कर ली जायें। अपर्याप्त साक्ष्य के कारण इतिहास के तराजू पर अक्सर जनश्रुतियां ही पसंगे का रोल करती है। घटना को झुठलाती हैं। ऐसा ही हुआ जब अग्रेंजभक्त जमीन्दारों के परिवारजन, इतिहासवेत्ता प्रो. इरफान हबीब ने लोकसभा के आम चुनाव के दौरान लखनऊ में (26 सितंबर 1999) अटल बिहारी वाजपेयी को ब्रिटिश राज का मुखबिर बताया था। इरफान हबीब तो इतिहासज्ञ हैं! वे भी तथ्यों से ठिठोली करें तो टीस होती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की 1942 में कथित भूमिका सभी आम निर्वाचनों के दौरान रक्तबीज के खून की बूंद से उपजी महादैत्यों की भांति अक्सर चर्चा में उभरती रही।

अटल बिहारी वाजपेयी ने यदि जो कुछ भी 1942 मे किया होगा, वह सत्रह साल के कमसिन, देहाती लड़के की आयु में किया था। आज इतने विकसित सूचना तंत्र के युग में, एक सत्रह-वर्षीय किशोर की सूझबूझ, सोच और रूचि कितनी परिपक्व होती है, इससे सभी अवगत है। आठ दशक पूर्व गुलाम भारत के ग्वालियर रजवाडे़ के ग्रामीण अंचल में अटल बिहारी वाजपेयी कितने समझदार रहे होंगे? इस कसौटी पर समूचे मसले को जांचने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम राजनीतिक तौर पर दिल्ली के लोकसभा सीट के चुनाव-अभियान (1971) में कांग्रेस के शशिभूषण वाजपेयी ने इस बात को प्रचारित किया था कि भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्राम बटेश्वर कांड (1942) में ब्रिटिश सरकार के पक्ष में बयान दिया था, जिसके आधार पर राष्ट्रभक्तों को सजा दी गयी थी। वह दौर चुनावी था, जब इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओं’ के नारे पर लोकसभा में बहुमत पाया था। सोवियत कम्युनिस्टों का प्रभाव भारत में चढ़ाव पर था। तब मुबंई के साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ (9 फरवरी 1974) ने इस विषय को तोड़-मरोड़ कर लिखा था। तत्पश्चात 1989 के लोकसभा निर्वाचन के दौरान जब पूरा देश तोप (बोफोर्स) की दलाली के मुद्दे पर वोट दे रहा था, तो राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी पर ‘भारत छोडो’ आंदोलन के साथ धोखा देने का आरोप लगाया था। इसके प्रचारक थे श्री डी. एस. आदेल। उसी वर्ष 8 अगस्त को बावन राजीव-भक्त सांसदों ने अटल जी को मुंबई में अगस्त क्रांति समारोह से बाहर रखने की मांग की थी। इस ज्ञापन पर प्रथम हस्ताक्षर थे रंगराजन कुमारमंगलम् के जो बाद में अटलजी के काबीना मंत्री बने। जब मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में 9 अगस्त 1998 को महाराष्ट्र शासन ने समारोह में प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को आमंत्रित किया था तो कांग्रेस सेवा दल के लोगों ने भी बात उठायी थी कि जब तक अटल बिहारी वाजपेयी (तब लोकसभा में विपक्ष के नेता) 1942 में अपने कथित बयान के लिए खेद नहीं व्यक्त करते, संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्री को उनके साथ मंच पर नहीं बैठना चाहिए।

2 views0 comments

Comments


bottom of page