हृदयनारायण दीक्षित
संसार रूपों से भरापूरा है। यहां प्रत्येक रूप के लिए शब्द हैं। रूप का नाम शब्द से प्रकट होता है। प्रत्येक शब्द ध्वनि है। शब्द ध्वनि हमारे मस्तिष्क को सक्रिय करती है। मस्तिष्क में प्रत्येक शब्द का वास्तविक रूप होता है। जैसे समुद्र वास्तविक है। अथाह जलराशि और लहरों का यथार्थ। लेकिन समुद्र नामकरण एक शब्द मात्र है। समुद्र शब्द सुनते ही मस्तिष्क में समुद्र का चित्र उभरता है। शब्द वास्तविक समुद्र का प्रतिनिधि है। यही बात सभी शब्दों पर लागू होती है। नाम और रूप मिलाकर परिचय है। हमारा मस्तिष्क प्रकृति के हरेक प्रपंच से प्रभावित होता है। प्रभावित मस्तिष्क विचार गढ़ता है। विचार का प्रति विचार भी गढ़ता है। बर्कले ने लिखा है, “मनुष्य को जिन पदार्थो का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों पर अंकित विचार हैं अथवा वे चित्त के व्यापारों व भावों पर ध्यान देने से वैसे प्रतीत होते हैं। वे ऐसे विचार हैं जो स्मृति या कल्पना की सहायता से निर्मित होते हैं।” यहां पदार्थ को विचार कहा गया है। लेकिन प्रत्येक विचार भौतिक पदार्थ नहीं होता। भारतीय अनुभूति की ईश्वर धारणा महत्वपूर्ण विचार है लेकिन ईश्वर पदार्थ नहीं है।
मस्तिष्क में विचार प्रवाह चला करते हैं। विचार के जन्म के लिए पदार्थो या ध्वनि की जरूरत होती है। मस्तिष्क पर ध्वनि के गहरे प्रभाव पड़ते हैं। शब्द रूप ध्वनि के अर्थ होते हैं। गीत काव्य इसी श्रेणी में आते हैं। मस्तिष्क में इन शब्दों के अर्थ होते हैं। लेकिन शब्द-अर्थ से भिन्न ध्वनियां भी प्रभाव डालती हैं। संगीत इस बात का साक्ष्य है। संगीत का अर्थ नहीं होता। पक्षी अपनी बोली में कुछ न कुछ बोलते हैं। हम कोयल की बोली ध्वनि को गीत कहते हैं। कोयल के बोलने का अर्थ नहीं निकलता। हम कोयल की भाषा का अर्थ नहीं जानते। सभी पक्षी बोलते हैं।
हमारा मस्तिष्क उन्हें ध्वनि रूप ग्रहण करता है। भारतीय धार्मिक कर्मकाण्ड में शंख ध्वनि का प्रयोग प्राचीन है। महाभारत युद्ध की शुरूवात शंख ध्वनि से ही हुई थी। सबसे पहले भीष्म ने अपना शंख बजाया। गीता (अध्याय 1.131) के अनुसार “इसके बाद शंख, नगाड़े बिगुल तुरही तथा सींग एक साथ बज उठे।” यहां ध्वनि प्रभाव पर जोर है। आगे कहते हैं “श्रीकृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त, व भीम ने पौण्ड्र नामक शंख बजाए। युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक शंख बजाया। नकुल ने सुघोष व सहदेव ने मणि पुष्पक शंख बजाया। विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई।” (वही 19) गीताकार ने कोलाहल शब्द का उचित प्रयोग किया है। कोलाहल भी महत्वपूर्ण ध्वनि है।
विचार भाषा में प्रकट होते हैं। उनका अर्थ समझना आसान है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद भी संभव है लेकिन संगीत का अनुवाद नहीं होता। संगीत की अभिव्यक्ति शब्दों में नहीं होती। संगीत का निर्माण ध्वनि से हुआ है। यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस ने काठ पर तारों की तंत्री बांधकर संगीत का प्रयोग किया था। ऋग्वेद में अनेक वाद्यमंत्रों के उल्लेख हैं। संगीत का अर्थ नहीं होता। लेकिन श्रोता को संवेदन से भरता है। कभी आनंद से कभी विषाद से। मैं स्वयं संगीत प्रेमी हूं और संगीत के साथ गीत का भी। यह हमारे मस्तिष्क को ताजा करता है। ध्वनि तरंगें मस्तिष्क के विशेष क्षेत्र पर प्रभाव डालती है। भारत के मंदिरों में मुख्य द्वार पर घंटा होता है। मंदिर प्रवेश के श्रद्धालु के मस्तिष्क में अनेक विचार चल रहे होते हैं। वह प्रवेश करते ही घंटा बजाता है। घंटा ध्वनि उसके मस्तिष्क में जाती है। उसके सोच विचार भंग हो जाते हैं। उसका मस्तिष्क नए विचार ग्रहण के लिए तैयार हो जाता है।
मनुष्य आदिम काल से ध्वनियों के प्रति संवेदनशील रहा है। शेर के बोलने को दहाड़ कहा जाता है। बिल्ली के रोने को अशुभ माना गया है। वह रोती या गाती है, वही जानती है लेकिन मनुष्य ने उसके बोलने को रोना बताया। वर्षा काल में मेढक बोलते हैं। ऋग्वेद के ऋषि ने मेढकों के बोलने को वैदिक मंत्रों को ध्वनि से तुलना की। तुलसीदास ने मेढकों ध्वनि की तुलना वेद पाठी मंत्रो से की - दादुरि धुनि चहुं और सुहाई/ वेद पढ़हिं जनु बट समुदाई। ध्वनि को अपने अपने अर्थ से लिया जाता रहा है। नदी प्रवाह में भी धुन होती है। अथर्ववेद में ऋषि नदी से कहते हैं “हे सरिताओं आप नाद करते हुए बहती हैं इसलिए आपका नाम नदी पड़ा। वस्तुतः सभी ध्वनियां संघर्षण से पैदा है। अस्तित्व के घटकों की गति में अनेक ध्वनियां हैं। सब ध्वनियां मिलकर भी एक महानाद पैदा करती है। महानाद परम ध्वनि है। अस्तित्व का किसी से संघर्ष नहीं हैं। वह स्वयंपूर्ण है। वह एक है। अस्तित्व में द्वैत नहीं है। अस्तित्व की ध्वनि को पूर्वजों ने अनाहत नाद कहा है। यह संपूर्णता की संपूर्ण ध्वनि है। ऋषियों ने इसे ओम् कहा है। ओम् संपूर्ण ध्वनि है। यह परम है। पतंजलि ने भी अस्तित्व की ध्वनि को ‘तस्यवाचक प्रणवं’ कहा है। अस्तित्व को ओ3म् नाम से पुकारते हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ओम् को लेकर कोई असहमति नहीं है। ऋग्वेद से लेकर सभी वेदों व उपनिषदों व पुराणों में ओ3म् ध्वनि की महत्ता है।
वैदिक मंत्र भी ध्वनि है। कुछ मंत्र समाज व्यवस्था के सूचक हैं। लेकिन अनेक मंत्र स्तुतियां हैं। स्तुति का केन्द्र भाव है। स्तोता भाव और मंत्रो का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। इसी प्रभाव से मस्तिष्क अपने भीतर तमाम रसायन पैदा करता है। एक शोध के अनुसार बचपन से ही वैदिक मंत्रोच्चार करने वालों का मस्तिष्क से तेज होता है। उनकी स्मरण शक्ति व समझने की क्षमता बेहतर होती है। इसका मूल कारण मंत्रोच्चार से दिमाग में होने वाले सकारात्मक बदलाव है। ऐसे लोग भावना प्रधान, तर्कशील भी होते हैं। यह बात एस0जी0पी0जी0आई0 कैंपस स्थित सेंटर ऑफ बायोमेडिकल रिसर्च के अध्ययन में सामने आई है। सीबीएमआर के ब्रेन मैंपिंग विशेषज्ञ डॉ. उत्तम कुमार, डाॅ0 अंशिका सिंह व क्राइस्ट यूनिवर्सिटी बंगलुरू के साइकोलॉजी विभाग के डॉ. प्रकाश ने यह अध्ययन किया। इसमें 21 से 28 आयु वर्ग के 50 युवाओं को शामिल किया गया। 25 युवा ऐसे थे जो 9 से 11 साल तक गुरूकुल में रहकर वेदों का अध्ययन करने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार कर रहे हैं। इन्हें 20,000 मंत्र व श्लोक कंठस्थ हैं। ये संस्कृत बोलते, लिखते व पढ़ते हैं। दूसरे ग्रुप में 25 ऐसे युवाओं को लिया गया जो हिंदी, संस्कृत व अंग्रेजी जानते समझते हैं। वे संस्कृत लिखते पढ़ते हैं, लेकिन नियमित तौर पर मंत्रोच्चार नहीं करते। काउंसिलिंग के बाद फंक्शनल एमआरआई से सभी की ब्रेन मैपिंग की गई।
अध्ययन में मस्तिष्क के स्कोर के हिसाब से डाटा का आंकलन किया गया। मस्तिष्क की संरचना के आधार पर वैदिक मंत्रोच्चार को लेकर यह अध्ययन महत्वपूर्ण है। इससे मानसिक व न्यूरो से जुड़ी बीमारियों के इलाज में काफी मदद मिलेगी। डॉ. कुमार बताते हैं कि कोरोना काल में लोगों में मानसिक समस्या बढ़ी है। ऐसे में उनके इलाज के लिए तैयार होने वाले नए प्रोटोकाल को बनाने में इस अध्ययन से मदद मिलेगी। डॉ. कुमार ने बताया कि मंत्रोच्चार वालों में मस्तिष्क की मेमोरी (हिप्पोकेंपस) का स्कोर सामान्य की अपेक्षा ज्यादा मिला। जब इंसान अवसाद में होता है तो ये हिप्पोकंपस मरने लगते हैं। इसी तरह लिखने, समझने व किसी बात को संग्रह करने वाले हिस्से (थैलमस) में मैटर ज्यादा मिला। वैदिक अध्ययन करने वालों की स्मृति तेज होती है। इनमें ब्रेन न्यूरॉन्स की मोटाई ज्यादा मिली, जिससे उन्हें संदेश जल्दी पहुंचता है। उच्चारण को नियंत्रित करने वाले लेफ्ट इंसुला के ज्यादा सक्रिय होने से उच्चारण की शुद्धता बढ़ जाती है। एंगुलर गायरिस में बदलाव की वजह से रिकॉल क्षमता ज्यादा हो जाती है। लगातार मंत्रोच्चार से मस्तिष्क के मध्य स्थित संदेशवाहक न्यूरॉन्स ज्यादा सक्रिय मिले। मस्तिष्क के सभी रहस्यों से पर्दा उठना शेष है। जान पड़ता है कि वैदिक ऋषियों ने मंत्र गान के माध्यम से मस्तिष्क की गतिविधि पर सकारात्मक प्रभाव डालने की क्षमता प्राप्त कर ली थी।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)
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