उत्तर प्रदेश एक बार फिर चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। अल्पसंख्यक शब्द हमेशा की तरह इस बार भी सुर्खियों में है। आम तौर पर अल्पसंख्यक का जिक्र आते ही लोग इसे सीधे मुस्लिमों से जोड़ देते हैं। राजनीतिक दलों के लिए भी अल्पसंख्यक का मतलब मुस्लिम ही होता है। जबकि ऐसा नहीं है।
भारत में जैन, सिख, पारसी, ईसाई, बौद्ध और मुस्लिमों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है। विभिन्न धर्मों को मानने वाले भारत में रहते हैं। ऐसे में धार्मिक रुप से अन्य की अपेक्षा जनसंख्या में कम आबादी वाले मतावलंबियों को अल्पसंख्यक कहा गया।
बीते दशकों में भारत में मुस्लिमों की आबादी लगातार बढ़ी है। अल्पसंख्यक आयोग और मंत्रालय में इन्हीं का कब्जा है जबकि शेष पांच धर्मों के लोग सरकार की तरफ से व्यवस्था होने के बावजूद तरह-तरह की समस्याओं से जूझते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से जारी तमाम योजनाओं और फंड को भी मुस्लिम ही हड़प कर जाते हैं। वोटबैंक के लालच में हर राजनीतिक दल इस तरफ आंखें मूंदे रहता है।
सही मायनों में भारत में अल्पसंख्यक सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसियों के वास्तविक हालात क्या हैं। चुनाव में इन समाजों के लोग क्या चाहते हैं ये राजनीतिक दलों के साथ साथ आप के लिए भी जानना जरुरी है।
अल्पसंख्यकों में शुमार सिख समुदाय यूं तो भारतीय सेना से लेकर खेती किसानी तक अपना पराक्रम दिखाता है लेकिन हकीकत यह है कि इस समाज को अल्पसंख्यक होने के बावजूद योजनाओं का लाभ नहीं मिलता। ये कहना है उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य सरदार परमिंदर सिंह का..
दुनिया के कई देश ऐसे हैं जहां बौद्ध धर्म के अनुयायी बड़ी संख्या में हैं लेकिन भारत जहां महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म की शुरुआत की वहां बौद्ध अल्पसंख्यक समाज में आते हैं। उत्तर प्रदेश के सारनाथ में महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पहला उपदेश दिया। यूपी में बौद्ध सर्किट बौद्ध धर्म की विशालता की कहानी कहता है लेकिन वर्तमान में बौद्ध समाज राजनीतिक दलों से निराश है। अल्पसंख्यक वर्ग में शामिल बौद्ध समाज की टीम का कोई ओर छोर नहीं
आप हैरान रह जाएंगें जैन समाज का हाल जानकर। राजधानी लखनऊ में जैनियों के सिर्फ साढ़े सात सौ परिवार हैं। पूरे देश में ये महज एक लाख के आस-पास हैं। इस बिरादरी का एक हिस्सा संपन्न है लेकिन समाज की बड़ी आबादी रोजमर्रा की जद्दोजहद से रोजाना दो चार होती है। सिर्फ इनता ही नहीं जैनियों में इस बात को लेकर खासी नाराजगी है कि अल्पसंख्यकों के नाम पर जो धनराशि सरकार द्वारा आवंटित की जाती है उसका लाभ जनसंख्या के आधार पर मुस्लिमों में ही बांट दिया जाता है। कहीं भी इस समाज को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।
यूं तो राजधानी लखनऊ में कई बड़े चर्च मौजूद हैं। चर्च परिसरों की विशालता यूपी के राजभवन और मुख्यमंत्री के आवास तक को मात देती है लेकिन ईसाई समाज की समस्याओं का भी कोई पुर्साहाल नहीं है। राजधानी लखनऊ समेत उत्तर प्रदेश के कई जिलों में कांन्वेंट एजुकेशन के नाम पर ईसाई समाज के स्कूलों की जितनी प्रतिष्ठा है उतनी ही समाज में बेबसी भी है। ईसाईयों का दर्द बताया शिक्षाविद् और समाजसेविका डा. रोमा स्मार्ट ने...
जनसंख्या के लिहाज से भारत में मुसलमान दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। मुसलमानों की बड़ी आबादी और एकमुश्त वोट डालने की फितरत राजनीतिक दलों को अन्य अल्पसंख्यकों का नाम तक जुबान पर नहीं आने देती। अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर जब यूपी के प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से सवाल पूछे गए तो पहले सब मुस्लिमों तक सीमित रहे। अन्य अल्पसंख्यकों की याद दिलाने पर कुछ उनके लिए भी बोल दिए
जाहिर है अल्पसंख्यक आयोग का गठन जिस उद्देश्य के साथ किया गया वो धराशाई हो चुका है। अल्पसंख्यक मंत्रालय हो या आयोग हर जगह अल्पसंख्यकों के नाम पर सिर्फ मुस्लिमों का बोलबाला है।
उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ बोर्ड के मंत्री मोहसिन रज़ा से जब यूपी के अल्पसंख्यकों पर सवाल पूछे गए तो उन्होंने क्या कहा आप भी सुनिए
अल्पसंख्यकों के लिए चल रही तमाम योजनाओं का लाभ एक समाज तक सीमित कर राजनीतिक दलों ने अपनी पोलपट्टी खुद ही खोल दी है। सिर्फ इतना ही नहीं दूसरे समाजों का हक हजम करने के बावजूद अगर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मुस्लिम ही सबसे खराब हालत में हैं तो ये और भी चिंताजनक और रहस्यमयी है।
टीम स्टेट टुडे
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